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वर्चुअल और एक्चुअल रैलियों से चुनाव, आभासी प्रचार से फायदे में नेता और जनता, बता रहे वरिष्ठ पत्रकार राकेश अचल

राकेश अचल, लेखक देश के जाने-माने पत्रकार और चिंतक हैं, कई राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय पत्र पत्रिकाओं में इनके आलेख प्रकाशित होते हैं।

विधानसभा उप चुनावों के दौरान इस बार चुनाव आयोग ने कोरोना की तीसरी लहर को देखते हुए चुनाव के तौर-तरीकों को एक्चुअल से वर्चुअल तो कर दिया लेकिन अभी तक जन-मानस इसे अंगीकार करने की मनस्थिति में नहीं है,सचमुच ये एक कठिन काम भी है .वास्तविक से आभासी हो जाना सभी के लिए एक चुनौती है .आभासी चुनाव प्रचार की अनदेखी करने पर पहली बार उत्तरप्रदेश में समाजवादी पार्टी के ढाई हजार कार्यकर्ताओं के खिलाफ प्रथम सूचना रपट दर्ज की गयी है .

पिछले पचहत्तर साल में चुनावों के तौर तरीके लगातार बदले हैं. पैदल और मात्र एक जीप से होने वाला चुनाव प्रचार अब करोड़ों रूपये की सीमाएं लांघ चुका है .तकनीक ने इसमें अपना चमत्कार दिखाया है सो अलग ,पहले प्रत्याशियों को प्रचार करने के लिए मतदाताओं को अपनी सूरत दिखाने जाना ही पड़ता था.प्रतीक चिन्ह और पर्चे बांटना ही पड़ते थे ,लेकिन बाद में खर्च की सीमाएं बढ़ीं तो तीन,कागज के बिल्लों की जगह प्लास्टिक के बिल्लों और पर्चों की जगह पुस्तिकाओं ने ले ली .चुनाव प्रचार के लिए जीप से आगे प्रत्याशी हैलीकाप्टर तक जा पहुंचे .मैंने खुद 1972 में पहली बार प्रत्याशियों को हैलीकाप्टर में सवार होकर चुनावी सभाओं के लिए आते देखा था .तब लोग प्रत्याशी को सुनने कम हैलीकाप्टर को देखने ज्यादा जाते थे.

देश में चुनावी परिदृश्य बदला 2014 में.इस चुनाव में तकनीक बहुत आधुनिक हो चुकी थी. टेलीविजन पर चुनावी रैलियों के सीधे प्रसारण से लेकर सोशल मीडिया के जरिये प्रत्याशी मतदाता के शयनकक्ष तक जा पहुंचे .मतदाता को प्रभावित करने के लिए मुफ्त के पर्चों से मीलों आगे बढ़कर चुनावों में बाकायदा मुफ्त का माल बांटने की जैसे होड़ मच गयी.शराब,कपड़े से लेकर नगदी तक बांटी जाने लगी .चुनावों में ठेकदारी प्रथा शुरू हो गयी और चुनाव लड़ना आम आदमी के बूते से बाहर हो गया .लेकिन न राजनीतिक दलों ने इसकी फ़िक्र की और न सरकारों ने .सब चुनाव खर्च की सीमा को पतंग की डोर की तरह बढ़ते रहे और आज दशा ये है कि इसे कम करने की बात करने वाला कोई नहीं बचा है.

विश्व व्यापी महामारी कोरोना ने एक अवसर दिया है चुनव प्रचार की शक्ल बदलने का .केंचुआ ने भी पहली बार चुनाव प्रचार को तकनीक के सहारे बदलने की कोशिश की है. बेहिसाब खर्च से आयोजित की जाने वाली चुनावी रैलियों पर रोक लगाईं है और एक्चुअल से वर्चुअल की और पहला कदम रखा है ,लेकिन राजनीति को ये रास नहीं आ रहा .राजनीतिक दल या तो आभासी माध्यम का इस्तेमाल करने में समर्थ नहीं हैं या फिर उन्हें इस तरीके की ताकत पर भरोसा नहीं है .इसीलिए जगह-जगह तमाम रोक के बावजूद जमावड़े हो रहे हैं,केंचुआ का प्रतिबंध तोड़ा जा रहा है .
भारत में चुनाव खर्च के बारे में आपको बता ही चुका हूँ.देश में पहली बार राजनितिक दलों ने सारी हदें तोड़कर अनुमन्त:30 हजार करोड़ रूपये खर्च किये थे ,जो 2019 के चुनाव में कम होने के बजाय 60 हजार करोड़ रूपये तक पहुँच गए .आप कल्पना कर सकते हैं की 2024 के आम चुनाव में कितना खर्च होगा ?लेकिन इसे वर्चुअल माध्यमों का इस्तेमाल कर रोका जा सकता है,और रोका जाना चाहिए .यदि समय रहंते हम न जागे तो भविष्य में लोकतंत्र लोक का नहीं केवल धनपशुओं का खेल बनकर रह जाएगा .चुनाव को व्यवसाय बनाने के बजाय एक सुचतापूर्ण संवैधानिक कृत्य बनाया जाना चाहिए ,ताकि इसमें हर कोई हिस्सा ले सके .

संयोग से मैंने अमेरिका में राष्ट्रपति के दो चुनाव देखे हैं.उनमें होने वाले तौर-तरीकों को देखा है .अमेरिका में चुनाव खर्च भी भारत की तरह ही बढ़ रहा है.वहां 2016 के राष्ट्रपति चुनावों में 6 .5 विलियन डालर था जो बाद के चुनाव में दो गुना हो गया यानि 2020 के चुनाव में अमेरिका के राजनितिक दलों और सरकार ने 14 अरब डालर खर्च कर दिए.चुनावी खर्च बढ़ने से हर देश की लोकनीति प्रभावित होती है .भारत में तो होती ही है लेकिन वर्चुअल माध्यमों के इस्तेमाल से इस बेकाबू रफ्तार पर रोक लगाईं जा सकती है .तमाम राजनीतिक दलों को कम से कम भविष्य को देखते हुए नए तौर-तरीके के इस्तेमाल करने का मन बनाना ही होगा .

आभासी माध्यमों से प्रत्याशी तथा राजनीति दल अपनी बात ज्यादा प्रभावी तरीके से पहुंचा सकते हैं और कम खर्च में ऐसा किया जा सकता है .अब देश में हर दूसरे ,तीसरे आदमी के हाथ में मोबाइल है.हर घर में टेलीविजन है ,ऐसे में लाखों लोगों की भीड़ जुटाने की क्या जरूरत ? भीड़ जुटाने के लिए सत्तारूढ़ दल सरकारी संसाधनों का दुरूपयोग करते हैं और बाक़ी को अपनी आती ढीली करना पड़ती है .टेलीविजन चैनल खरीदना पड़ते हैं ,लेकिन जब आपके पास विकल्प मौजूद हैं तो उनका इस्तेमाल क्यों नहीं किया जाता ?जानबूझकर नवाचार की अनदेखी ठीक नहीं है .
पांच राज्यों के चुनावों में यदि चुनाव प्रचार के लिए आभासी तकनीक कारगर और कामयाब होती है तो देश 2024 के आम चुनावों में न सिर्फ बहुत सा पैसा बचा सकता है बल्कि चुनाव प्रचार के नाम पर होने वाले कदाचरण को भी रोक सकता है .चुनौती बड़ी है लेकिन ऐसी भी नहीं की जिस पर पार न पाया जा सके .जरूरत संयम की है .चुनावों में पानी की तरह पैसा बहाने की प्रवृत्ति पर रोक जरूरी है ,क्योंकि चुनाव बाद जो जीतता है वो अपने चुनाव खर्च को बराबर करने के लिए भ्रष्टाचार का सहारा लेता है और फिर सिस्टम की जो दशा होती है वो सबने देखी है .

एक अनुमान के मुताबिक़ भारत में कुल मतदाता 90 करोड़ से अधिक हो गए हैं,इनमें अब कमी होने का तो सवाल ही नहीं है.ये संख्या साल-दर-साल बढ़ना ही है .इस लिहाज से चुनावी खर्च भी बढ़ेगा ही ,लेकिन आभासी माध्यमों के इस्तेमाल से इसे कम किया जा सकता है .हमारे देश में पहले ही तकनीक के जरिये ‘दुनिया को मुठ्ठी ‘ में करने के प्रयोग हो चुके हैं .जिन लोगों ने ये कोशिश की थी वे अपने मकसद में कामयाब रहे तो फिर सरकार और राजनीतिक दल ऐसा क्यों नहीं कर सकते ? इसलिए बहानेबाजी छोड़िये ,नवाचार अपनाइये .
@ राकेश अचल

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