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घटिया राजनीति के बीच मतदाता, जनता के साथ नेताओं के छल फरेब की पोल खोलता वरिष्ठ पत्रकार राकेश अचल का आलेख

राजनीति के गिरते स्तर, उसकी छलावा भरी चाल और गिरते चरित्र के रूप एक बार फिर देखने को मिल रहे हैं। उत्तर प्रदेश में ताजा राजनीतिक दलबदल पर वरिष्ठ पत्रकार राकेश अचल का यह आलेख मतदाताओं की आंख खोल रहा है। हालांकि राजनीतिक चातुर्य और फरेब के बीच नेता मतदाताओं को हर बार लुभाने में कामयाब हो जाते हैं। राजनीति के घटिया चरित्र समझिये इस लेख में। – संपादक 

राकेश अचल, लेखक देश के जाने-माने पत्रकार और चिंतक हैं, कई राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय पत्र पत्रिकाओं में इनके आलेख प्रकाशित होते हैं।

लिखना मजबूरी न हो तो मुझ जैसे तमाम लोग देश की घटिया राजनीति पर शायद कभी न लिखें ,लेकिन विसंगति ये है कि हम न सिर्फ घटिया राजनीति से जूझ रहे हैं बल्कि उसके सामने असहाय भी हैं,क्योंकि इसे रोकने या हतोत्साहित करने का फिलहाल देश के पास कोई कारगर उपाय नहीं है .घटिया राजनीति के दर्शन एक बार फिर पांच राज्यों के विधानसभा चुनावों में दिखाई देना शुरू हो गए हैं .उत्तर प्रदेश इसका पहला उदाहरण बना है .

उत्तर प्रदेश में भाजपा सरकार में पूरे समय तेल में सदेह डूबे रहे स्वामी प्रसाद मौर्य अब समाजवादी पार्टी के साथ आकर खड़े हो गए हैं. स्वामी प्रसाद मौर्य का अनुगमन करते हुए अब कितने और विधायक,मंत्री सत्तारूढ़ भाजपा का साथ छोड़ेंगे कहा नहीं जा सकता .राजनीति के जानकार इसे डूबते जहाज से चूहों के भागने जैसी घटना मान रहे हैं और मुझे लगता है कि ये  एक स्वाभाविक घटना है .

सबसे पहले स्वामी जी की बात कर लेते हैं. मौर्य साहब पांच बार के विधायक हैं. मंत्रिपद का सुख लेने के साथ ही उन्हें प्रतिपक्ष के नेता का भी अनुभव है. पहले बहन मायावती के सारथी थे लेकिन बाद में राजनीति उन्हें भाजपा के पास ले आयी.ये उनका दूसरा दलबदल है. वे अब समाजवादी पार्टी के साथ खड़े हैं,यानि उनकी हैसियत आलू जैसी है .वे किसी के साथ भी खड़े होने में गौरव अनुभव करते हैं .उन्हें दलबदल से पहले अपने मतदाताओं से पूछना नहीं पड़ता .उनकी बेटी संघमित्रा अभी भी भाजपा की सांसद है और शायद तब तक इस्तीफा नहीं देगी जब तक कि पिता के ऊपर कोई तोता-मैना नहीं छोड़ा जाता .

देश में अब कोई भी चुनाव हो ,दल-बदल चुनाव की जरूरत हो गयी है. दलबदल चुनाव के पहले भी हो सकता है और चुनाव के बाद भी. चुनाव के पहले का दलबदल थोड़ा सा नैतिक माना जाता है और चुनाव के बाद का दलबदल सौदेबाजी कहा जाता है .देश का कोई ऐसा राज्य अब ऐसा नहीं है जहां दलबदल के विषाणु न पहुंचे हों .स्वामी प्रसाद से लेकर सिंधिया ज्योतिरादित्य तक इस विषाणु के शिकार बन चुके हैं .जैसे आज कोरोना और उसके नए -नए वेरिएंट्स पर कोई टीका कारगर नहीं हो पा रहा उसी तरह दलबदल के ऊपर कोई कानून कारगर नहीं है .क़ानून से कोई नेता डरता नहीं है .
दलबदल दरअसल एक जुआ है.इसमें लाभ भी है और हानि भी.लाभ-हानि नसीब का खेल है .दलबदल के परिणामस्वरूप बनी-बनाई सरकारें गिर भी सकतीं हैं और बनते-बनते रह गयीं सरकारें बनाई भी जा सकतीं है .दलबदल के लिए हर तरह की मुद्रा चलती है. नगद से लेकर मौखिक तक .जिसकी ,जैसी हैसियत होती है ,उसे दलबदल के बाद वैसा प्रतिफल मिलता है.देश में अनेक अखंड दलबदलू हुए हैं. स्वर्गीय रामविलास पासवान इस मामले में आदर्श पुरुष हैं .भारतीय मतदाता आजादी के पचहत्तर साल बाद भी दलबदलू का बहिष्कार करना नहीं सीख पाया है .राजनीति दल येन-केन दलबदलुओं को जनता के सर पर बैठा देते हैं ,इसके लिए चुनाव जीतना कोई अनिवार्य शर्त नहीं है .

दलबदलू किसी भी प्रान्त,दल या जाति,वर्ण का हो मौलिक रूप से कायर होता है,बिकाऊ होता है.संदिग्ध होता है. दलबदलू को कलंक की फ़िक्र नहीं होती,उसे पता है की आजकल ऐसे -ऐसे डिटर्जेंट मौजूद हैं जिनसे जिद्दी से जिद्दी दाग धुल जाते हैं .साल-दो साल के ही नहीं बल्कि सदियों पुराने दाग भी .अब धोने की विधियां ईजाद कर ली गयीं हैं .दलबदलू यदि एक तरफ कायर होता है तो दूसरी तरफ दुस्साहसी और बेशर्म भी होता है. दलबदलू कल जिस दल को गालियाँ दे रहा होता है ,दल बदलने के बाद उसी दल का स्तुतिगान पूरी शृद्धा से करने लगता है. ये गुण आम राजनीतिज्ञ में नहीं पाए जाते .

स्वामी प्रसाद मौर्य का अभिनंदन किया जाना चाहिए,किया जा रहा है ,किया जाएगा ,क्योंकि वे नए साल के पहले बड़े दलबदलू हैं.उत्तर प्रदेश के दलबदलू इतिहास में उनका नाम दूसरी बार ईस्टमैन कलर में अंकित किय जायेगा ..मै देश के उन चुनिंदा लोगों में से हूँ जो दलबदलुओं की खिलाफत करते हैं,हालांकि हमें ऐसा नहीं करना चाहिए.दलबदलुओं का विरोध करना अपने पांवों पर कुल्हाड़ी मारने जैसा होता है ,क्योंकि सत्ता का हिस्सा बनते ही दलबदलू आपके भाग्यविधाता बन जाते हैं .हमने 1970 के पहले के दलबदलुओं का सिर्फ इतिहास पढ़ा था लेकिन बाद के दलबदलुओं को तो साक्षात देखा है ,उनसे बर्ताव भी किया है .

अगले महीने होने वाले विधानसभा चुनावों में दलबदल कोई बहुत बड़ा कारक हो पायेगा इसमें मुझे संदेह है,लेकिन मेरे संदेह करने से क्या होता है ? हकीकत किसी भी करवट बैठ सकती है .यूपी में योगी जी दलबदल से आहत हो सकते हैं,पंजाब में आप वालों का कल्याण हो सकता है तो गोवा में कोई क्या कर दे कहा नहीं जा सकता .बाकी छोटे दो अन्य राज्यों में दलबदल से ही भविष्य का निर्धारण होने की समभावना अंत तक बनी रहेगी .

मेरा सुझाव है कि पूरे देश में दल-बदल को जिस तरह से सभी राजनीतिक दल प्रोत्साहित कर रहे हैं ,उसे देखते हुए देश से दलबदल के तमाम कागजी कानूनों को समाप्त कर दलबदल को वैध बना देना चाहिए. दलबदल अंतरात्मा से जुड़ा विषय है. जब अतीत में राष्ट्रपति पद के चुनावों में अंतरात्मा की आवाज पर वोट मांगे जा सकते हैं तब क्या अंतरात्मा की प्रेरणा से दलबदल को कानूनी मान्यता नहीं दी जा सकती ? यदि दलबदल को कानूनी जामा पहना दिया जाये तो देश के दलबदलुओं की जमात को आसानी होगी और इससे देश का लोकतंत्र भी मजबूत होगा .

आने वाले दिनों में लोग दलबदलुओं को घृणा की दृष्टि से न देखें इसके लिए आवश्यक है कि देश की संसद दलबदलुओं को सम्मान दिलाने के लिए गंभीरता से कुछ सोचे.दलबदलुओं को पदम् पुरस्कार दिए जाएँ .उनका नागरिक अभिनंदन किया जाये ,क्योंकि अंतत: सभी दलों को इन्हीं दलबदलुओं के जरिये सत्ता का संचालन करना है .जैसे भ्र्ष्टाचार देश का चरित्र बन चुका है वैसे ही राजनीति में दलबदल राष्ट्रीय चरित्र बन गया है .ऐसा कोई दल नहीं है जिसने दलबदलुओं को शरणागत न माना हो ! वैसे दलबदलुओं के लिए ‘ शरणागत’ शब्द भी इस्तेमाल किया जा सकता है ,किन्तु इसमें दीनता का आभास होता है ,दलबदलू जैसी धमक सुनाई नहीं देती ,वो ढंक जिससे हलचल होती है .बहरहाल देखते जाइये कि आने वाले दिनों में कितने दलबदलू ,कहाँ-कहाँ से निकल कर,कहाँ-कहाँ जाते हैं ?
@ राकेश अचल

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