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उत्तराखंड के चुनावी समर में सीट बदलकर कोई बना हीरो तो कोई हुआ जीरो

उत्तराखंड के चुनावी समर का इतिहास बताता है कि कि अब तक सीट बदलकर लड़ने के दांव तो कई लगाते रहे हैं लेकिन इस खेल में कोई हीरो रहा तो कई के लिए ये दांव उल्टा भी पड़ा है।

@शब्द दूत ब्यूरो (30 दिसंबर, 2021)

उत्तराखंड के राजनीतिक गलियारों में कैबिनेट मंत्री डॉ. हरक सिंह रावत के बारे में एक बार फिर यह चर्चा गरम है कि वह चुनाव लड़ने के लिए नई विधानसभा सीट खोज रहे हैं। उन्हीं की तरह कुछ और भी नेता हैं। लेकिन अभी उन्होंने अपने पत्ते नहीं खोले हैं।

उत्तराखंड के चुनावी समर का इतिहास बताता है कि कि अब तक सीट बदलकर लड़ने के दांव तो कई लगाते रहे हैं लेकिन इस खेल में कोई हीरो रहा तो कई के लिए ये दांव उल्टा भी पड़ा है।

सीट बदलकर चुनाव लड़ने का हरक सिंह का दांव अभी तक सटीक रहा है। इसलिए वह अपने दल और नेताओं को संकेत कर रहे हैं कि वह इस बार लैंसडौन, डोईवाला, केदारनाथ, यमकेश्वर या यमुनोत्री में से किसी भी विधानसभा सीट से चुनाव लड़ने के ख्वाहिशमंद हैं। वह कोटद्वार विस सीट से चुनाव लड़ने के इच्छुक नहीं दिख रहे।

चुनाव से पहले उजागर हुई उनकी इस ख्वाहिश ने इन सीटों के विधायकों को नई चिंता में डाल दिया है। उत्तराखंड में सीट बदलकर चुनाव लड़ने वाले डॉ. हरक सिंह अकेले नेता नहीं हैं। विधानसभा क्षेत्र के लोगों की नाराजगी और सत्तारोधी रुझान से बचने के लिए सीट बदलने का यह फार्मूला अलग-अलग दलों के अन्य नेताओं ने भी अपनाया। लेकिन सभी कामयाब नहीं हो पाए।

भाजपा सरकार में कैबिनेट मंत्री डॉ. हरक सिंह रावत यूपी की चुनावी सियासत से लेकर उत्तराखंड में अभी तक हुए चार विधानसभा चुनावों तक चार अलग-अलग सीटों पर विधायक रह चुके हैं। यूपी के समय वह 1991 और 1993 में भाजपा के टिकट पर पौड़ी विधानसभा सीट से चुनाव जीते थे। 1996 में उन्होंने फिर पौड़ी विस सीट से जनता दल के टिकट पर चुनाव लड़ा और भाजपा के मोहन सिंह गांववासी से पराजित हो गए।

राज्य गठन के बाद 2002 के विधानसभा चुनाव में हरक सिंह रावत ने कांग्रेस के टिकट पर लैंसडौन विधानसभा सीट से चुनाव जीता। 2007 के विधानसभा चुनाव में भी वह इस सीट से विधायक बने। लेकिन 2012 में लैंसडौन विस सीट से चुनाव लड़ने का साहस नहीं कर सके। सत्तारोधी रुझान के डर से उन्होंने रुद्रप्रयाग विधानसभा सीट का रुख किया और वहां से विधानसभा पहुंचे। 2017 के विधानसभा चुनाव में डॉ. हरक सिंह ने एक बार फिर सीट छोड़ी और कोटद्वार विधानसभा सीट पर ताल ठोकी।

विधानसभा चुनाव में सीट बदल कर जीतने वालों में डॉ. हरक सिंह अकेले भाग्यशाली नेता नहीं हैं। कुछ और भी विधायक हैं जिन्हें विधानसभा सीटों के आरक्षित होने या परिसीमन से उनका सामाजिक, जनसांख्यिक और क्षेत्रीय स्वरूप बदलने की वजह से पारंपरिक प्रत्याशी को दूसरे विधानसभा के लिए पलायन करना पड़ा।

इनमें पूर्व कैबिनेट मंत्री यशपाल आर्य का नाम प्रमुख है। यशपाल आर्य खटीमा, मुक्तेश्वर, बाजपुर से विधायक रह चुके हैं। यूपी के समय वह खटीमा से विधायक रहे। राज्य गठन के बाद 2002 के विस चुनाव में वह मुक्तेश्वर विस से विधायक बने।

परिसीमन में मुक्तेश्वर सीट खत्म हो गई तो आर्य को बाजपुर सीट पर पलायन करना पड़ा। 2007 के विस चुनाव में सहसपुर सीट से भाजपा के राजकुमार जीते और 2017 के चुनाव में राजकुमार पुरोला सीट पर पलायन कर गए और चुनाव जीत गए।

पूर्व कैबिनेट मंत्री प्रीतम सिंह पंवार 2002 में यमुनोत्री विस सीट चुनाव जीते। 2017 के विस चुनाव में प्रीतम पंवार ने यमुनोत्री सीट को बाय-बाय किया और धनोल्टी विस सीट से ताल ठोकी। उनका यह दांव सटीक बैठा। धनोल्टी सीट के सामान्य हो जाने के बाद वहां से विधायक खजानदास ने आरक्षित हुई राजपुर सीट से चुनाव लड़ा और जीत गए।

विधायक गणेश जोशी को राजपुर सीट आरक्षित होने के कारण मसूरी विधानसभा का रुख करना पड़ा। जोशी को भी मसूरी विस रास आई। वह इस सीट पर लगातार दो बार विधायक चुने गए।

उत्तराखंड की चुनावी सियासत में सीट बदलकर चुनाव लड़ने वाले कुछ दिग्गज तो जीरो हो गए। पराजय के बाद उन्हें वापसी करने के लिए तगड़ी मशक्कत करनी पड़ी। इनमें सबसे पहला नाम पूर्व मुख्यमंत्री भुवन चंद्र खंडूड़ी का है। 2007 में भाजपा की सरकार बनीं और सत्ता की बागडोर पार्टी ने जनरल खंडूड़ी के हाथों में सौंपी। खंडूड़ी के लिए कांग्रेस के जनरल टीपीएस रावत (रि.) ने अपनी धुमाकोट विस सीट छोड़ी। जनरल खंडूड़ी इस सीट से उपचुनाव जीतकर विस पहुंचे।

2012 में जब पार्टी ने उन्हें उत्तराखंड में मुख्यमंत्री का चेहरा बनाया तो जनरल ने चुनाव के लिए कोटद्वार विस सीट को चुना और वह हार गए। इस पराजय के बाद जनरल खंडूड़ी मुख्यधारा की राजनीति में वापसी नहीं कर सके।

दिग्गज नेता हरीश रावत को भी चुनाव में मुंह की खानी पड़ी। वो भी एक सीट से नहीं बल्कि दो-दो सीटों से। वर्ष 2016 में मुख्यमंत्री बनने के बाद उन्होंने धारचूला विधानसभा से उपचुनाव जीता। 2017 के विस चुनाव में यह उनके लिए आसान सीट हो सकती थी। लेकिन उन्होंने हरिद्वार ग्रामीण और किच्छा विस सीटों से चुनाव लड़ा और पराजित हो गए। मुख्यमंत्री रहते हुए दो-दो विधानसभा सीटों से चुनाव हारने का उन्होंने रिकॉर्ड बना दिया।

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