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साज़िश: कोरोना से लोग मर रहे थे और दवा कंपनियां साजिश रच रही थीं, नेताओं की लॉबिंग पर 3700 करोड़ खर्च किए

क्या आप जानते हैं कि जब आप अपनों को बचाने के लिए अस्पताल-अस्पताल, बेड-बेड, दवाई-दवाई ठोकरें खा रहे थे; तभी कुछ बिजनेस टायकून नेताओं पर अरबों रुपए उड़ा रहे थे, ताकि नेता उन्हें दवाई और कोरोना वैक्सीन का व्यापार करने दें।

@नई दिल्ली शब्द दूत ब्यूरो (12 दिसंबर, 2021)

एक बार फिर कोरोना हमारे दरवाजे पर खड़ा है, नए वैरिएंट ओमिक्रॉन के रूप में जो पहले से भी पांच गुना तेजी से फैल रहा है। इधर विशेषज्ञ कह रहे हैं कि जनवरी में तीसरी लहर आ रही है। लेकिन क्या आप जानते हैं कि जब आप अपनों को बचाने के लिए अस्पताल-अस्पताल, बेड-बेड, दवाई-दवाई ठोकरें खा रहे थे, तभी कुछ बिजनेस टायकून नेताओं पर अरबों रुपए उड़ा रहे थे, ताकि नेता उन्हें दवाई और कोरोना वैक्सीन का व्यापार करने दें।

आइए आपको इस कहानी को परत दर परत बताते हैं। बताते हैं कि कैसे इंटेलेक्चुअल प्रॉपर्टी के नाम पर वैक्सीन बनाने का अधिकार कुछ कंपनियों तक सीमित रखा गया। बाद में उन कपंनियों को वैक्सीन बनाने का ठेका मिला जो पहले लोगों की जान के साथ खेलती रही हैं और अरबों रुपए का जुर्माना भर चुकी हैं। ये वैक्सीन कंपनियां हैं फाइजर और जॉनसन एंड जॉनसन। इनके अलावा तीन फार्मा कंपनियां भी ऐसी ही बेईमानी के लिए बदनाम हैं।

बात फरवरी 2021 की है। आपको ये महीना याद होगा जब कोरोना दिन दूनी और रात चौगुनी रफ्तार से फैल रहा था। दुनिया वैक्सीन के लिए त्राहिमाम-त्राहिमाम कर रही थी। भारत और साउथ अफ्रीका विश्व व्यापार संगठन, यानी डब्लूटीओ के पास गए थे। ये प्रस्ताव लेकर कि मेडिकल की दुनिया के इंटेलेक्चुअल प्रॉपर्टी वाले नियमों में थोड़ी ढील मिल जाती तो वैक्सीन बनाने में देरी न होती।

डाउन टु अर्थ में छपी एक रिपोर्ट के मुताबिक, इस प्रस्ताव को रोकने के लिए अमेरिकी फार्मा कंपनियों के संगठन ‘द फार्मास्यूटिकल रिसर्च एंड मैन्युफैक्चरिंग ऑफ अमेरिका’ ने महज कुछ दिनों में 50 मिलियन डॉलर, यानी करीब 3 हजार 700 करोड़ रुपए से अधिक नेताओं पर और लॉबिंग में खर्च कर दिए। यही नहीं दवा कंपनियों की मजबूत लॉबिंग की वजह से भारत का यह प्रस्ताव लागू नहीं हो पाया।

डब्लूटीओ ने अगर ये प्रपोजल उसी वक्त पास कर दिया होता तो इसका सीधा फायदा विकासशील और कमजोर देशों को मिल गया होता। इसका सीधा गणित यह है कि वैक्सीन के इंटेलेक्चुअल प्राॅपर्टी की लिस्ट से बाहर आते ही ट्रॉयल कर चुकीं सभी कंपनियों को फॉर्मूला दूसरे देशों के साथ शेयर करना पड़ता। फिर सभी देश अपने लोगों के लिए खुद से वैक्सीन तैयार कर चुके होते। गरीब देशों में भी सभी लोगों को वैक्सीन देना आसान होता।

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