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जानकारी :एकलव्य की समाधि पर बन रहे मंदिर पर पहुंची शब्द दूत की टीम, जहाँ द्रोणाचार्य को अपना अंगूठा दिया था काटकर, सरकारी उपेक्षा का शिकार है यह पौराणिक स्थल, देखिए वीडियो

@विनोद भगत/गौरव भट्ट 

महाभारत काल की कथाओं में गुरूभक्त शिष्य और अर्जुन से भी कुशल धनुर्विद्या में प्रवीण एकलव्य के बारे में कौन नहीं जानता। भारतीय पौराणिक कथा महाभारत बगैर एकलव्य के अधूरी है। गुरु दक्षिणा में अपने दायें हाथ का अंगूठा ही काटकर द्रोणाचार्य को भेंट करने की अनोखी घटना अपने आप में मिसाल है।

मैं इन दिनों गुरूग्राम आया हुआ हूँ। कहते हैं कि गुरू द्रोणाचार्य ने यहाँ कौरवों व पांडवों को धनुर्विद्या की शिक्षा दी थी। यहाँ आकर पता चला कि महाभारत के पात्र एकलव्य की समाधि इसी शहर से 12 किमी (लगभग) ग्राम खांडसा (तब का खांडव वन) में है। यही वह स्थान है जहाँ गुरु द्रोणाचार्य को एकलव्य ने अंगूठा काटकर दिया था। एकलव्य जैसे कालजयी शिष्य की समाधि पर बन रहे मंदिर को देखने के लिए ग्राम खांडसा पहुंच गये। गांव के बीचोंबीच एकलव्य की समाधि का नये सिरे से पुनर्निर्माण किया जा रहा है। वहाँ न केवल एकलव्य का मंदिर वरन शिक्षा, स्वास्थ्य और खेल जैसी समाजोपयोगी सुविधाओं का भी विस्तार किया जा रहा है। लेकिन सरकारी उपेक्षा यहाँ भी देखने को मिली। 

एकलव्य तीर्थ नाम से बनी कमेटी के अध्यक्ष सुनील सिंह (सेवानिवृत्त सैनिक) ने बताया कि इस समाधि पर मंदिर का निर्माण आपसी सहयोग से प्राप्त धन और निर्माण सामग्री से कराया जा रहा है। वह स्वयं यहाँ निर्माण कार्य का निरीक्षण करते हैं। वहीं एकलव्य मंदिर परिसर में बच्चों के लिए एक खेल एकेडमी भी है। जहाँ बच्चों को विभिन्न खेलों तथा सेना में भर्ती होने के लिए आवश्यक ट्रेनिंग भी दी जाती है।

सुनील सिंह ने परिसर के भीतर बच्चों को निशुल्क शिक्षा प्रदान करने के लिए बनाये गये स्कूल के कमरे दिखाये। खास बात यह है कि इस स्कूल में उन बच्चों को निशुल्क पढ़ाई और पुस्तक के साथ कापी आदि भी प्रदान की जाती हैं, जो गरीब हैं। इसके अलावा वहाँ पर एक चिकित्सालय भी है जिसमें महिलाओं के लिए निशुल्क चिकित्सा उपलब्ध करायी जाती है।

एक कमरे वाला एकलव्य मंदिर 1721 ईस्वी में एक समृद्ध ग्रामीण द्वारा बनाया गया था। गुड़गांव और यह मंदिर वह स्थान है जहाँ अर्जुन ने अपने बाण चलाने से पहले पक्षी की आँख के अलावा कुछ नहीं देखा, भारत का पारंपरिक नाम भरत है जो इसी क्षेत्र से महाभारत जनजाति के नाम से आता है । पौराणिक कथा के अनुसार एकलव्य ने अपना दाहिना अंगूठा काट दिया और द्रोणाचार्य को गुरु दक्षिणा के रूप में उपहार में दिया, उसका अंगूठा यहां दफन किया गया और मंदिर के वर्तमान स्थान पर एक समाधि बनाई गई। यह राजस्थान , मध्य प्रदेश और भारत के अन्य हिस्सों से बड़ी संख्या में आने वाले भील लोगों और नोइया संप्रदाय द्वारा पूजनीय है ।

सुनील सिंह बताते हैं कि एकलव्य की समाधि पर बनने वाला यह देश का एकमात्र मंदिर है। हालांकि पिछले दिनों तेलंगाना राज्य से भील जाति के कुछ लोग यहाँ आये थे और यहाँ की मिट्टी लेकर गये जो कि एकलव्य का मंदिर तेलंगाना में भी स्थापित करेंगे। सुनील सिंह ने बताया कि कि महाभारत के इस प्रमुख पात्र के मंदिर की स्थापना के लिए सरकारी स्तर पर कोई मदद या किसी तरह का प्रयास नहीं किया गया जो कि दुर्भाग्यपूर्ण है।

क्या है एकलव्य की कथा? 

एकलव्य को अप्रतिम लगन के साथ स्वयं सीखी गई धनुर्विद्या और गुरुभक्ति के लिए जाने जाते है। पिता की मृत्यु के बाद वह श्रृंगबेर राज्य के शासक बने। अमात्य परिषद की मंत्रणा से उनहोने न केवल अपने राज्य का संचालन किया , बल्कि निषादों की एक सशक्त सेना गठित कर के अपने राज्य की सीमाओँ का विस्तार किया।

महाभारत में वर्णित कथा के अनुसार एकलव्य धनुर्विद्या सीखने के उद्देश्य से द्रोणाचार्य के आश्रम में आये किन्तु निषादपुत्र होने के कारण द्रोणाचार्य ने उन्हें अपना शिष्य बनाना स्वीकार नहीं किया। निराश हो कर एकलव्य वन में चले गये । उ उन्होंने द्रोणाचार्य की एक मूर्ति बनाई और उस मूर्ति को गुरु मान कर धनुर्विद्या का अभ्यास करने लगे । एकाग्रचित्त से साधना करते हुये अल्पकाल में ही वह धनु्र्विद्या में अत्यन्त निपुण हो गया। एक दिन पाण्डव तथा कौरव गुरु द्रोण के साथ आखेट के लिये उसी वन में गये जहाँ पर एकलव्य आश्रम बना कर धनुर्विद्या का अभ्यास कर रहा था। राजकुमारों का कुत्ता भटक कर एकलव्य के आश्रम में जा पहुँचा। एकलव्य को देख कर वह भौंकने लगा। कुत्ते के भौंकने से एकलव्य की साधना में बाधा पड़ रही थी अतः उसने अपने बाणों से कुत्ते का मुँह बंद कर दिया। एकलव्य ने इस कौशल से बाण चलाये थे कि कुत्ते को किसी प्रकार की चोट नहीं लगी। कुत्ते के लौटने पर कौरव, पांडव तथा स्वयं द्रोणाचार्य यह धनुर्कौशल देखकर दंग रह गए और बाण चलाने वाले की खोज करते हुए एकलव्य के पास पहुँचे। उन्हें यह जानकर और भी आश्चर्य हुआ कि द्रोणाचार्य को मानस गुरु मानकर एकलव्य ने स्वयं ही अभ्यास से यह विद्या प्राप्त की है। 

कथा के अनुसार एकलव्य ने गुरुदक्षिणा के रूप में अपना अँगूठा काटकर द्रोणाचार्य को दे दिया था। इसका एक सांकेतिक अर्थ यह भी हो सकता है कि एकलव्य को अतिमेधावी जानकर द्रोणाचार्य ने उसे बिना अँगूठे के धनुष चलाने की विशेष विद्या का दान दिया हो। कहते हैं कि अंगूठा कट जाने के बाद एकलव्य ने तर्जनी और मध्यमा अंगुली का प्रयोग कर तीर चलाने लगा। यहीं से तीरंदाजी करने के आधुनिक तरीके का जन्म हुआ। निःसन्देह यह बेहतर तरीका है और आजकल तीरंदाजी इसी तरह से होती है। वर्तमान काल में कोई भी व्यक्ति उस तरह से तीरंदाजी नहीं करता जैसा कि अर्जुन करता था। 

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