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दिल्ली की खारी बावली का इतिहास जहां पर आज भी घुलती है मेवों की मिठास

@ नई दिल्ली शब्द दूत ब्यूरो (21 अक्टूबर, 2021)

त्योहारी मौसम में सूखे मेवों के बाजार पर रौनक छा जाती है। हर बार की तरह इस बार भी दिल्ली का चांदनी चौक और खासतौर पर खारी बावली की फिजा गुलाजर हो उठी है। नाम भले खारी है लेकिन यहां के मेवों की मिठास विदेश तक है।

अफगानिस्तान में आए संकट की गूंज से कुछ समय के लिए बाजार में हलचल जरूर हुई थी लेकिन त्योहारों के रंग में एक बार फिर से खारी बावली का रूप निखर उठा है। ढेर के ढेर काजू, बदाम, अखरोट, किशमिश तमाम किस्म के सूखे मेवे। कुछ तो ऐसे कि जिनके नाम आपने नहीं सुने होंगे और कुछ ऐसे जिनके नाम भले न सुने हों लेकिन उन्हें देखकर पहचान जरूर जाएंगे।

पुरानी दिल्ली की तंग गलियों के बीच एक बावली है जिसका इतिहास भले ही खारेपन का प्रतीक हो लेकिन उसका वर्तमान उतनी ही मिठास लिए हुए है। कभी खारे पानी की वजह से नाम का खारापन भले ही साथ नहीं छोड़ रहा हो लेकिन सूखे मेवों की मिठास आज देश में ही नहीं, महाद्वीप में भी स्वाद, खुशबू और पौष्टिकता की पहचान बन गई है दिल्ली की खारी बावली। नाम और गुण में असामनता का प्रतीक खारी बावली एशिया का सबसे बड़ा बाजार यूं ही नहीं है। इसका अपना इतिहास है।

शाहजहांनाबाद के 14 दरवाजों में से एक है लाहौरी और काबुल दरवाजा से व्यापारी शाहजहांनाबाद आते थे और यहीं पर ठहरते थे। अफगानिस्तान की आबोहवा में सूखे मेवे बहुत होते थे। ऐसे में वहां के व्यापारी मसालों और सूखे मेवों का विक्रय करने यहां आते थे। धीरे-धीरे वहां दुकानें स्थापित हो गईं और खारी बावली का वजूद नई बनी सड़कों और दुकानों तले दब गया।

देखते ही देखते ये जगह सूखे मेवों का गढ़ बन गई। इसकी विशालता और समृद्धि की कहानी इतिहास की किताबों में भी मिल जाती है। ‘चांदनी चौक द मुगल सिटी आफ ओल्ड दिल्ली’ पुस्तक में इतिहासकार स्वपना लिडले ने लिखा है कि खारी बावली में सूखे मेवे का विशालतम बाजार है। इसी तरह से ‘दिल्ली ए थाउजेंड ईयर्स आफ बिल्डिंग’ में लूसी पेक ने लिखा है कि खारी बावली ड्राईफ्रूट और मसालों का दिलकश बाजार है।

इतिहासकार मनीष के गुप्ता का कहना है कि मुगल बादशाह शाहजहां ने दिल्ली को व्यापार का केंद्र बनाया था। इससे पहले व्यापार का केंद्र आगरा था। पहले अफगानिस्तान भारत का हिस्सा था। धीरे-धीरे भौगोलिक परिधियां सिमटीं और फिर देश का विभाजन हुआ उसके कुछ समय बाद पख्तूनिस्तान का मुद्दा आया कि वहां के लोग पाकिस्तान का नहीं, बल्कि भारत का साथ चाहते थे। उस दौरान तत्कालीन नेताओं द्वारा इस प्रस्ताव को ठुकरा दिया गया था।

मनीष के गुप्ता कहते हैं कि भले ही पड़ोसी देश से रिश्ते खट्टे-मीठे रहे हैं लेकिन अफगानिस्तान से रिश्ते हमेशा मधुर रहे हैं। हालांकि खान अब्दुल गफ्फार खान यानी सीमांत गांधी का प्रस्ताव ठुकरा दिया गया था। अगर ऐसा न होता तो आज डाईफ्रूट उत्पादन करने वाला यह हिस्सा भारत के साथ होता और डाईफ्रूट के सबसे बड़े उत्पादक हम होते।

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