अखिलेश डिमरी
ये कुछ शब्द मेरे बचपन के दौर की चहेती शब्दावली के शब्द थे , बल्कि शब्द क्या पसंदीदा घटनाक्रम थे। इसलिए कि इन शब्दों का यथार्थ बहुप्रतीक्षित और फलदायी हुआ करते थे।
रिश्तों की संवेदनशीलता को तो मैं हूबहू परिभाषित नही कर सकता, लेकिन परिवहन के नाम पर केवल पैदल के एकमात्र विकल्प के उस दौर का सुना सुनाया किस्सा महज इसलिए लिखने की कोशिश कर सकता हूं कि शायद हम रिश्तों की संवेदनशीलता को समझ सकें।
मेरे चाचाजी ने कभी मुझे किस्सा सुनाया था कि दूर की रिश्तेदारी में भी बगल के गांव से नारायण मामा नामक व्यक्ति हर साल सावन के बाद मेरे गांव के घर में दादाजी-दादी से मिलने आते और चार पाँच रोज तक आंनद से वहीं रहते और उनके आने का सभी को इंतजार रहता। खास तौर पर उस वक्त की नौनिहाल पीढ़ी को क्योंकि वो जब भी आते तो अपनी छोटी सी पोटली में चूड़े , अखरोट के दाने और गुड़ तिल मिक्स करके लाते और आते ही बच्चों के सुपुर्द कर देते जिसका हर वर्ष नौनिहालों को इंतजार रहता।
रिश्ते और समौण (उपहार) क्या होते हैं इसे यूं समझिए कि एक साल वो नही आये तो दादाजी ने उनके गांव विशेष हरकारा भेजा कि क्या बात हुई कि नारायण इस साल अभी तक न आया? तब पता चला कि अब वो बीमार और बुजुर्ग हो गए फिर उनकी खैरख्वाह ली गयी उनकी जरूरतों का देखा गया। आज के दौर में रिश्तों की गर्माहट के इस मर्म को शायद समझना भी बूते की बात नहीं।
रैबार याने संदेशा का तो आदान प्रदान ही गजब था गांव से दादी के पोटली में बांधे तिल और अखरोट के जखेले मिक्स चूड़े बुखणो की सनद के लिए दादाजी गाँव से दो किलोमीटर पैदल उतर देहरादून से मंडल जाने वाली रोडवेज की बस के सुपुर्द करते और तीन चार घंटे बाद कन्फर्म डिलीवरी दादाजी की सेहत और घर के हालातों के साथ हो जाती वो भी बिल्कुल मुफ्त और अपनत्व के भाव के साथ और दूसरे दिन वैसे ही इधर की कुशल मंगल दादाजी और दादी तक पहुंच जाती।
वो दौर इतने अपनत्व का था कि पिताजी हमे बस में सुपुर्द कर चालक-परिचालक को बता देते कि बच्चे गांव जाएंगे या फिर ममकोट (ननिहाल ) और चालक-परिचालक हमें अगर गांव जाना है तो गांव पहुंचते ही गांव की सड़क पर देवी बडा जी की दुकान में जमा करा देते और ननिहाल जाना हो यो श्रीनगर में उतार कर टिहरी जाने वाली बस में जमा करा देते फिर जिनके पास जमा कराया जाता उनकी स्वतः जिम्मेदारी होती कि फाइनल डिलीवरी कर दी जाए और बच्चों की पावती की सूचना भी ताकीद कर ली जाए।
वो दौर आज के मोबाइल के व्हाट्सएप का तो छोड़िए दूर दूर तक चोंगे वाले फोन का भी न था। लेकिन कुशल-मंगल की बहुतेरी संवादशीलता मौजूद थी। आज इंटरनेट के दौर में 399 रुपये की कीमत पर डेढ़ जीबी के फोर जी डेटा से चलते मोबाइल के व्हाट्सएप संदेशों और 40 रुपये से लेकर 250 रुपये तक अदा कर कुरियर के स्पीड पार्सल के युग की तय समय की जीएमओ और रोडवेज की बस के ड्राइवर काका और कंडक्टर भैजी की ससमय कंफर्म व मुफ्त लेकिन अनमोल डिलीवरी से कोई तुलना नहीं की जा सकती।
अब दौर बदल चुका है हम भले ही इंटरनेट की 4 जी स्पीड और स्पीड पोस्ट के युग में जीकर खुद को गौरवान्वित महसूस करें। लेकिन दौर का सत्य यही है कि जरूरत पड़ने पर यदि दो लाइन की चिट्ठी को बस से भेजना हो तो ड्राइवर कंडक्टर पलट कर आपसे सवाल करते हैं कि भाई इस चिट्ठी को पहुंचने का पैसा आप दोगे या जिसे पहुंचानी है वो देगा। हम भी मुस्कुरा कर कह देते हैं कि वही देगा ये लो उसका मोबाइल नम्बर लिख लो। और सच मानिए कि ये कहते ही हम फारिग हुए जाते हैं।
इस दौर में रिश्तों की संवेदनशीलता को इस बात से मापिये कि 70 साल से ऊपर बुजुर्ग बाप को शहर से गांव विदा करते वक्त हम उसकी और जरूरत पूछें न पूछें पर उनके पास आधार कार्ड है कि नही ये बात जरूर पूछने लगे हैं। क्योंकि हम उन्हें रोडवेज की बस में बिठा कर अपने कर्तव्यों के निर्वहन के ढिंढोरा पीटते वक्त मन ही मन खुश हो रहे होते हैं कि ये सरकार बहुत बेहतर है जिसने बूढ़े बुजुर्गों का आना जाना फ्री कर दिया। जबकि इसी बुजुर्ग को बिठाते वक्त कंडक्टर बड़बड़ा रहा होता है कि ये बूढ़े भी चैन से नही रह सकते एक जगह पर। चले आते हैं रोज रोज। और फिर बेटा और कंडक्टर दोनों के दोनों अपनी-अपनी पर क्योंकि किसी का बाप जा रहा है और किसी के बाप का क्या जा रहा।