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शर्म: दूध बेचकर गुजारा करने को मजबूर पुलवामा हमले में शहीद जवान का पिता

@शब्ददूत ब्यूरो

वाराणसी। 14 फरवरी का दिन विश्व के कई देशों में वेलेंटाइंस डे के रूप में मनाया जाता है, लेकिन भारत के लिए यह ‘काला दिवस’ साबित हुआ। क्योंकि इसी दिन यानि कि 14 फरवरी 2019 को कश्मीर के पुलवामा में सीआरपीएफ के जवानों के काफिले से एक गाड़ी टकराई और भयंकर धमाका हुआ। धमाके के बाद सड़क पर जवानों के क्षत-विक्षत शव नजर आने लगे। इस आतंकी साजिश में कुल 42 जवानों की दर्दनाक मौत हो गई। जिसमें अकेले उत्तर प्रदेश के 12 जवान शहीद हुए।

इनमें वाराणसी के शहीद रमेश यादव भी हैं। जिनका परिवार आज किल्लत भरी जिंदगी जीने को मजबूर है। सरकार की उपेक्षा के चलते आज भी शहीद के घरवालों को पर्याप्त आर्थिक मदद नहीं मिली। जिसकी वजह से ही शहीद के बुजुर्ग पिता को दूध बेचकर गुजारा करना पड़ रहा है। सरकार के आश्वासन के बाद भी गांव में शहीद स्मारक, मूर्ति और शहीद के नाम पर गांव के प्रवेश द्वार दरकार है।   

जवानों की मौत को लोकसभा चुनाव में बीजेपी ने खूब भुनाया। नतीजा ये हुआ कि पिछली बार के मुकाबले बीजेपी को कहीं ज्यादा सीटें मिलीं और फिर से केंद्र में बीजेपी की सरकार बन गई। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी दोबारा प्रधानमंत्री तो बन गए लेकिन शहीदों की याद में बनने वाले स्मारक बनाना भूल गए। सरकार द्वारा जवान की उपेक्षा की वजह से आज शहीद का परिवार दुखी है। वहीं शहीदों के सम्मान में गाये जाने वाले गीत-‘शहीदों की चिताओं पर लगेंगे हर वर्ष मेले, वतन पर मरने वालों का यही बाकी निशां होगा।’ की राह देख रहा है।   

शहीद रमेश यादव की पत्नी, बड़ा भाई और बुजुर्ग पिता दूध साइकिल से ले जाते हैं। शहीद की मां से जब बेटे के नाम पर सरकार द्वारा सहयोग करने के बारे में बात की गई तो उनके आंसू बंद होने का नाम नहीं ले रहे थे। शहीद रमेश का ढाई साल का बेटा घर के प्रांगण में खेल रहा था। शायद उसे अभी भी ये मालुम नहीं कि उसके पिता कहां हैं। क्योंकि हमले की वक्त उसकी उम्र मात्र डेढ़ वर्ष की ही थी।

घर की हालत भी कुछ ठीक नहीं है। हमले के एक साल बीतने को हैं शहीद के गांव में उनके नाम पर न तो शिलापट्ट लगाई गई, न शहीद स्मारक बना, न ही मूर्ति की स्थापना हुई और न ही शहीद के नाम पर गांव में प्रवेश द्वार बना। यहां तक की गांव के सड़क ही हालत तक नहीं बदली। जैसे की तैसी अभी भी गांव की हालत बनी हुई है।

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