काशीपुर । संस्मरणों को शब्दों में पिरोकर उसके पात्रों के साथ बिताये पलों को चित्रात्मकता के साथ पाठकों के समक्ष प्रस्तुत करना बड़ा ही कठिन होता है। मुक्ता सिंह वैसे तो राजनीतिक तौर पर अपनी पहचान रखती हैं लेकिन एक पारिवारिक विवाद के चलते अपने जीवन के सबसे बुरे दौर को जीने के बाद उपजी पीड़ा को उन्होंने एक संस्मरणात्मक किताब लिखकर खुद को राजनीति से इतर स्थापित करने का प्रयास किया है।
वो आठ दिन उनकी पहली पुस्तक है जिसमें मुक्ता सिंह ने जेल के दिनों की अपनी दिनचर्या के दौरान भोगे गये पलों की दास्तान लिखी है। पुस्तक को आद्योपांत पढ़ने के बाद मुक्ता सिंह के संवेदनशील ह्रदय का परिचय होता है तो कहीं कहीं उनकी राजनैतिक व्यक्तित्व की छाप भी दृष्टिगोचर होती है। लेकिन जेल में उनके साथ रही महिला पात्रों की वास्तविक सच्चाई जानकर जो कुछ उन्होंने महसूस किया और उसे शब्दों में पिरोया उससे लगता है कि मुक्ता सिंह महज राजनेता नहीं एक आम इंसान भी हैं। किताब में अधिकांश जगह उनके अंदर की आम महिला जागती नजर आती है। साथी सजायाफ्ता महिलाओं का दर्द और पीड़ा उन्हें उद्वेलित करती है। ऐसे में जिस आरोप में मुक्ता सिंह को जेल में रहना पड़ा एकाएक यह विश्वास नहीं होता कि उन पर ऐसे आरोप भी लग सकते हैं।
किताब में मुक्ता सिंह अपने परिवार और उसके साथ जीती हुई नजर आती हैं। लेकिन वहाँ एकाकी जीवन नहीं जिया उन्होंने। अपने राजनैतिक साथियों को भी नहीं भूलती। कुल मिलाकर मुक्ता सिंह की यह किताब पठनीय है सरल भाषा में लिखी गयी इस पुस्तक ने एक राजनेत्री के नये रूप से परिचय कराया है।