कोश्यारी जी बोले तो भगत दा यानि महाराष्ट्र के राज्यपाल भगत सिंह कोश्यारी जी की होशियारी इस समय पूरा देश देख रहा है। कई तो अवाक हैं,इस होशियारी से। उत्तराखंड में मुख्यमंत्री की कुर्सी को लेकर झगड़े-झमेले से कोश्यारी जी का पुराना नाता रहा है। जब-जब वे मुख्यमंत्री की कुर्सी के आसपास रहे, तब-तब झगड़े-झमेले हुए।
सन 2000 में उत्तराखंड राज्य,भाजपाई नामकरण-उत्तरांचल के साथ बना। पहली सरकार का गठन होना था। मुख्यमंत्री पद को लेकर खींचतान हुई और नित्यानन्द स्वामी मुख्यमंत्री बनाए गए। इससे भगत सिंह कोश्यारी और उनके साथ ही वर्तमान मानव संसाधन विकास मंत्री रमेश पोखरियाल ‘निशंक’ इस कदर कुपित हुए कि उन्होंने कैबिनेट मंत्री पद की शपथ ही नहीं ली। कई दिन बाद शपथ तो ले ली पर मुख्यमंत्री की कुर्सी पर से नजर उन्होंने नहीं हटाई। कुर्सी की खींचातान के बीच ही नित्यानन्द स्वामी ने अखबारों में बयान दिया कि शराब माफिया मेरी सरकार गिराना चाहता है। कौन सरकार गिराना चाहता है और किसको बनाना चाहता है, यह नित्यानन्द स्वामी ने स्पष्ट नहीं किया और अब यह बताने के लिए वे इस दुनिया में नहीं हैं।लेकिन यह जरूर हुआ कि कुछ दिनों बाद ही भगत सिंह कोश्यारी उत्तराखंड की पहली कामचलाऊ सरकार के दूसरे मुख्यमंत्री बना दिये गए।
बात आगे बढ़ाने से पहले जरा कोश्यारी जी के राजनीतिक जीवन पर भी नजर डाल ली जाये। कोश्यारी जी आरएसएस के कार्यकर्ता थे। एक छोटा-मोटा 4-6 पन्ने का अखबार निकालते थे। नब्बे के दशक के अंतिम वर्षों में उत्तर प्रदेश में सत्तारूढ़ भाजपा ने कोश्यारी जी को पत्रकारिता की श्रेणी में उत्तर प्रदेश विधान परिषद का सदस्य नामित कर दिया।
उत्तराखंड अलग राज्य बना तो उत्तर प्रदेश की विधानसभा में जितने उत्तराखंड के विधायक थे, वे उत्तराखंड की पहली अन्तरिम विधानसभा के सदस्य मान लिए गए। इसके साथ ही उत्तर प्रदेश विधान परिषद के सदस्य भी उत्तराखंड की कामचलाऊ विधानसभा के सदस्य मान लिए गए।
यह अपने आप में अनोखा मामला था। विधानसभा प्रत्यक्ष निर्वाचन से चुनी जाती है। जबकि विधान परिषद के लिए अप्रत्यक्ष निर्वाचन होता है। लेकिन फिर भी उत्तर प्रदेश विधान परिषद के सदस्यों को उत्तराखंड की विधानसभा का सदस्य बना दिया गया। पहले कामचलाऊ मुख्यमंत्री नित्यानन्द स्वामी भी उत्तर प्रदेश की विधान परिषद से उत्तराखंड की विधानसभा के सदस्य बनाए गए थे। इसी तरह का मामला कांग्रेस की नेता इन्दिरा हृदयेश का भी था।
नित्यानन्द स्वामी और इन्दिरा हृदयेश दोनों ही शिक्षक निर्वाचन क्षेत्र से विधान परिषद के सदस्य चुने गए थे यानि अप्रत्यक्ष निर्वाचन द्वारा विधान परिषद के सदस्य बने थे। कोश्यारी जी तो प्रत्यक्ष न अप्रत्यक्ष किसी तरह से नहीं चुने गए थे, वे नामित किए गए थे। लेकिन इस नामित मार्ग से ही वे अलग राज्य की पहली कामचलाऊ सरकार के दूसरे मुख्यमंत्री बनने में सफल रहे।
2007 में जब उत्तराखंड में भाजपा पुनः सत्तासीन हुई तो मुख्यमंत्री की कुर्सी के दावेदार कोश्यारी जी भी थे। उनके समर्थक विधायकों की संख्या भी अधिक थी। चूंकि उत्तराखंड में मुख्यमंत्री दिल्ली दरबार से नामित करने की परिपाटी है। इसलिए कोश्यारी जी का दावा धरा रह गया और भुवन चंद्र खंडूड़ी मुख्यमंत्री बना दिये गए। पर दो-साल होते-न होते,सत्ता की अंदरूनी खींचतान के चलते, खंडूड़ी को मुख्यमंत्री पद से हटाना पड़ा। लेकिन मुख्यमंत्री की कुर्सी इस बार भी कोश्यारी के बगल से निकल गयी और रमेश पोखरियाल निशंक,मुख्यमंत्री बना दिये गए।
वैसे मुख्यमंत्री काल के भगत दा के किस्से भी कम रोचक नहीं। बेरोजगारों का एक प्रतिनिधिमंडल उनके पास रोजगार की मांग के लिए गया। उन्होंने हंसते हुए जवाब दिया-मैं तो खुद ही 55 साल तक बेरोजगार था ! इस बयान ने उस दौरान अखबारों में खूब सुर्खियां पायी। सन 2001 में गढ़वाल विश्वविद्यालय के छात्र संघ शपथ ग्रहण समारोह में ऐसा ही एक किस्सा भगत दा ने खुद अपने श्रीमुख से सुनाया। वे बोले- “मेरे पास एक गांव के लोग आए। उन्होंने कहा कि हमारे गांव में स्कूल नहीं है। मैंने कहा तो क्या हो गया, तुम्हारे बगल वाले गांव में भी तो नहीं है।” कुर्सी पर टकटकी और जनता को टका सा जवाब,इस सफर का कुल जमा यही सार है।
2009 में भुवन चंद्र खंडूड़ी को मुख्यमंत्री पद से हटाये जाने के बाद कोश्यारी मुख्यमंत्री बनते-बनते रह गए। इस घटनाक्रम पर दैनिक अखबार-जनसत्ता ने बड़ा रोचक हैडिंग लगाया, जो कुर्सी के संघर्ष में कोश्यारी की भूमिका को भी स्पष्ट करता है। जनसता का हैडिंग था- “खंडूड़ी को ले डूबे कोश्यारी, कोश्यारी की होशियारी !”
मुख्यमंत्री की कुर्सी को लेकर महाराष्ट्र में कोश्यारी ने फिर ऐसी ही होशियारी दिखाई है। अंतर बस इतना है कि इस बार होशियारी अपने लिए नहीं, अपनों के लिए है। यह देखना रोचक होगा कि यह होशियारी सफल होगी या इसका हश्र 2009 की तरह होगा।