@विनोद भगत
धार्मिक आस्था भारत की आत्मा है, परंतु आस्था के केंद्रों पर जब भीड़ प्रबंधन की अनदेखी होती है, तब वह भक्ति स्थल दुर्घटनाओं का केंद्र बन जाता है। धार्मिक आयोजनों या मंदिरों में हुई भगदड़ की घटनाएं यह दिखाती हैं कि हम बार-बार एक ही त्रासदी को दोहराने पर विवश हैं।
क्यों हो रही हैं बार-बार ऐसी घटनाएं?
- प्रशासनिक लापरवाही: समय रहते भीड़ का आंकलन, बैरिकेडिंग, और नियंत्रण की व्यवस्था नहीं हो पाती।
- समुचित इन्फ्रास्ट्रक्चर का अभाव: कई धार्मिक स्थलों पर संकरी गलियाँ, ढलान या एकल प्रवेश-द्वार होते हैं।
- समन्वय की कमी: स्थानीय पुलिस, प्रशासन और मंदिर समितियों के बीच पूर्व योजना और संवाद का अभाव होता है।
- अफवाहें और अफरा-तफरी: छोटी बातों पर फैलती अफवाहें भारी भीड़ में भगदड़ को जन्म देती हैं।
- राजनीतिक हस्तक्षेप: कई बार भीड़ नियंत्रण के निर्णय राजनीतिक दबाव में प्रभावित होते हैं।
जिम्मेदार कौन?
इन घटनाओं के लिए सामूहिक जिम्मेदारी बनती है:
- स्थानीय प्रशासन: पूर्वानुमान, सुरक्षा बलों की तैनाती, आपातकालीन तैयारियाँ सुनिश्चित नहीं करता।
- धार्मिक आयोजन समितियाँ: अक्सर क्षमता से अधिक भीड़ को आमंत्रित करती हैं, बिना पर्याप्त इंतज़ाम के।
- राज्य सरकारें: घटना के बाद जांच और मुआवज़ा तो देती हैं, पर स्थायी समाधान नहीं करतीं।
- श्रद्धालु स्वयं: नियमों की अनदेखी और अनुशासनहीनता भी कई बार कारण बनती है।
| क्या किए जा सकते हैं उपाय? |
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- भीड़ प्रबंधन की पूर्व योजना और रियल टाइम निगरानी प्रणाली (CCTV, ड्रोन आदि)
- प्रवेश और निकास द्वारों का स्पष्ट निर्धारण
- ऑनलाइन पंजीकरण प्रणाली और संख्या नियंत्रण
- स्थल विशेष के अनुसार आपात निकासी मार्ग की व्यवस्था
- स्थानीय स्वयंसेवकों और प्रशिक्षित आपदा दलों की तैनाती
हर बार एक जैसी त्रासदी, हर बार असमय मौतें, और हर बार दोहराया गया एक ही सवाल – कब सुधरेगा यह तंत्र? आस्था को अनुशासन, सुरक्षा और योजनाबद्ध व्यवस्थाओं से जोड़े बिना ऐसी घटनाओं पर पूर्ण विराम नहीं लगाया जा सकता। श्रद्धालुओं की सुरक्षा एक सामूहिक जिम्मेदारी है, जिसे हर स्तर पर गंभीरता से निभाना होगा।
सबसे बड़ी बिडम्बना यह है कि सरकारें दुर्भाग्यपूर्ण घटनाओं के बाद शोक संवेदना और मुआवजा वितरण कर देती है लेकिन उसके बाद फिर ऐसे दर्दनाक हादसे होने का सीधा सा अर्थ यह है कि भीड़ प्रबंधन में प्रशासन असफल और असहाय नजर आता है।
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