@शब्द दूत ब्यूरो (06 जुलाई 2025)
श्रावस्ती जनपद के गिलौला थाना क्षेत्र स्थित केरवानिया गांव इन दिनों चर्चा का केंद्र बना हुआ है। कारण है गांव में मोहम्मदन आबादी का नामोनिशान न होना, फिर भी वर्षों से ताजिया रखने की अद्भुत और सराहनीय परंपरा का जीवंत निर्वहन। यह परंपरा सिर्फ एक प्रतीक नहीं, बल्कि भारत की गंगा-जमुनी तहजीब का सशक्त उदाहरण है, जहां मजहब की दीवारें बौनी हो जाती हैं और इंसानियत, सम्मान व सांस्कृतिक विरासत को सर्वोपरि माना जाता है।
केरवानिया गांव पूरी तरह हिंदू बहुल है। यहां न कोई मुस्लिम परिवार रहता है, न ही कोई मस्जिद है। बावजूद इसके मुहर्रम के मौके पर दर्जनों की संख्या में ताजिए बनाए जाते हैं और पूरे श्रद्धा व सम्मान के साथ उनका जुलूस निकाला जाता है। गांव के युवाओं से लेकर बुजुर्गों तक, सभी इस परंपरा में बढ़-चढ़कर भाग लेते हैं।
स्थानीय लोगों का कहना है कि यह परंपरा कई पीढ़ियों से चली आ रही है। ऐसा माना जाता है कि गांव के पूर्वजों ने हजरत इमाम हुसैन की कुर्बानी को श्रद्धा पूर्वक सम्मानित करने के लिए यह परंपरा शुरू की थी, जो आज भी जीवंत है। यहां ताजिए सिर्फ सजावट का प्रतीक नहीं, बल्कि शौर्य, बलिदान और सांप्रदायिक सौहार्द के प्रतीक बन गए हैं।
गांव के निवासी बताते हैं कि मुहर्रम के दौरान पूरे गांव में विशेष तैयारियां होती हैं। ढोल-नगाड़ों के साथ ताजिए निकाले जाते हैं, जिसमें महिलाएं, बच्चे और बुजुर्ग भी भाग लेते हैं। गांव में हर कोई इस परंपरा को धर्म से परे मानकर निभाता है, जो सांस्कृतिक एकता की मिसाल पेश करता है।
आज जब देश के कई हिस्सों में धार्मिक आधार पर विभाजन की खाइयाँ गहराती जा रही हैं, ऐसे में केरवानिया जैसे गांव न केवल एकता का संदेश दे रहे हैं बल्कि यह साबित कर रहे हैं कि भारत की असली ताकत उसकी विविधता में निहित है।
केरवानिया गांव का यह कदम पूरे प्रदेश और देश के लिए प्रेरणास्रोत है, जो यह सिखाता है कि जब इरादे नेक हों और भावनाएं शुद्ध, तो मजहब की दीवारें स्वतः ही गिर जाती हैं और इंसानियत सिर उठाकर खड़ी हो जाती है।
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