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प्रसंगवश :संत परंपरा पर चमत्कारी बाबाओं की कुदृष्टि@राकेश अचल

राकेश अचल,
वरिष्ठ पत्रकार जाने माने आलोचक

आग्रह का कच्चा हूं। कच्चा ही नहीं बल्कि बेहद कच्चा हूं इसीलिए मित्रों के आग्रह पर स्वयंभू सरकारों और तथाकथित संतों के बारे में लिख रहा हूं।न लिखूं तो पाठक और मित्र मुझे घोर शाप भी दे सकते हैं। मुझसे कहा गया है कि मैं इस विषय पर लिखते समय मुदियाऊं नहीं।

आजकल हमारे बुंदेलखंड के एक सुदर्शन बच्चा संत की चर्चा खूब हो रही है। सत्ता से संरक्षित ऐसे बच्चा बाबा नौटंकियो में विदूषकों की भूमिका में नेताओं के खूब काम आते हैं। हमारे सूबे के गृहमंत्री ने तो इस बालयोगी की कथा भी कराई और अपनी बीबी के घुटनों का दर्द भी दूर कराया है। अब आप बताइए कि ऐसे विदूषक समाज में क्यों न पूजे जाएं ?
बात आधी सदी पुरानी है,तब न टीवी था न सोशल मीडिया इसलिए चमत्कारी बाबाओं की दूकानों का लोगों को पता नहीं था।अब यही दूकाने मॉल में तब्दील हो चुकी हैं।बाबा बच्चे हों या बूढ़े सबके अपने अपने चैनल हैं।बाबा अब साधक नहीं एक प्रोडक्ट बनकर रह गये हैं।और प्रोडक्ट ‘ लाइफवाय है जहां, तंदुरस्ती है वहां ‘ की तर्ज पर बिकता है।हमारा बुंदेलखंडी बाबा भी आजकल लाइफवाय साबुन की तरह अपने प्रमोशन में लगा है।

मै आपसे पचास साल पहले की बात कर रहा था।पचास साल पहले हमारे ममाने में लोग किसी भी समस्या को लेकर गांव के बाहर नहीं जाते थे।भैंस चोरी हो जाए या लड़की भाग जाए,पेट में दर्द हो या रतोंधी हो गई हो, खेती ठीक नहीं हो रही हो या कर्ज की समस्या हो,सबका हल भैरों बाबा के मंदिर पर अमावस की रात होने वाली गम्मत में हल्ले गड़रिया पर आने वाली भैरों जी की सवारी करती थी। कोई पुलिस थाना, अस्पताल, सरकारी दफ्तर नहीं जाता था। असफेर के दस,बीस गांव के लोग इस निशुल्क सेवा का लाभ लेते थे।
भैरों की सवारी के लिए हल्ले गड़रिया घुल्ला बनते थे। उनसे पहले हलले के पिता, दादा , परदादा भी भैरों की सेवा करते थे। घुल्ला पहले भैरों का आव्हान करता, मिट्टी के कटोरे में भरकर ठर्रा पीता और तेज ढांक बजने पर झूमता।सवारी आने पर सबके सवाल सुनता,हर बताता और पौ फटने से पहले विदा लेकर चला जाता।आज देश के हर कौने -कौने में हल्ले और घुल्ले मौजूद है। कोई भैरों का एजेंट है तो कोई शनि का। किसी को बजरंगबली फल रहे हैं और बेचारे चारों शंकराचार्य हल्ले,घुल्ले से जल रहे हैं। हल्ले -घुल्लों की सरकारें चुनी हुई सरकारों पर पूरी तरह से हावी हैं।

ये हल्ले -घुल्ले किसी के भी मन की बात जान लेने और बड़ी से बड़ी समस्याओं का हल चुटकी में कर देने का दावा करते हैं।जब कोई ऐसे लोगों को चुनौती देते हैं तब सबसे पहले इनके संरक्षक आहत होते हैं।खुशी की बात ये है कि प्रयागराज के माघ मेले में मौजूद संत महात्माओं ने बुंदेली बाबा पर निशाना साधना शुरू कर दिया है ।माघ मेले में मौजूद दंडी सन्यासियों ने साफ तौर पर कहा है कि बुंदेली बिजूका कतई संत नहीं है। वह ढोंगी और पाखंडी हैं । आने वाले दिनों में वह संत समाज के लिए बदनामी और मुसीबत का सबब बन सकता हैं। उसका अंजाम भी निर्मल बाबा और आसाराम बापू की तरह हो सकता है।

हैरानी की बात ये है कि ये संत- महंत दिव्य शक्तियों में यकीन करते हैं और मानते हैं कि दिव्य शक्तियों को तंत्र साधना के जरिए हासिल तो किया जा सकता है, लेकिन यह बहुत कठिन साधना होती है. जिसके पास इस तरह की शक्ति होती है वह उसका उपयोग देश व समाज के लिए करता है न की मार्केटिंग व प्रचार के लिए।

इस देश में सदियों से चमत्कार का धंधा चल रहा है। आगे भी चलेगा क्योंकि इस सबको रोकने के लिए सरकार खुद तैयार नहीं है।एक प्रदेश में इन नौटंकी के खिलाफ कानून हैं तो दूसरे में नहीं। बुंदेली बाबा के मामले में भी यही हो रहा है। महाराष्ट्र में उसके चमत्कारों को चुनौती दी गई तो बाबा दूसरे राज्य में जाकर बमकने लगा। उसने अपने आपको बचाने के लिए पूरे मामले को धर्म से जोड़ने की हिमाकत कर डाली।

बहरहाल मैं ये जोर देकर कहना चाहता हूं कि भारत की प्रगति में ये नोटंकियां ही सबसे बड़ी बाधा हैं।जब तक इनके खिलाफ सख्त कानून बनाकर कार्रवाई नहीं होती ये सिलसिला जारी रहेगा। सबसे पहले तो नेताओं को इस तरह के चालबाजों से दूर रहना होगा क्योंकि भीड़ जुटाने के लिए ये नेता ही सबसे ज्यादा इस्तेमाल करते हैं।

देश में इन फर्जी सरकारों को तत्काल रोकने की इच्छा शक्ति न पिछली सरकारों में थी और न मौजूदा सरकार में है। ये सिलसिला चंद्रा स्वामी से लेकर राम रहीम तक जारी है। अतीत में इस देश ने ऐसी अनेक तस्वीरें देखीं हैं जिनमें नेता, मंत्री बाबाओं की लात सिर पर रखवा कर आशीर्वाद लेते नजर आते थे। हत्या, बलात्कार, जालसाजी के मामलों में लिप्त बाबाओं को जेलों से पेरोल दिलाने से लेकर गिरफ्तारी से बचाने में सरकारों की दिलचस्पी किसी से छिपी नहीं है। इसलिए पाठक खुद फैसला कर सकते हैं कि देश का भविष्य क्या होगा?

भारत की संत परंपरा निश्चित रूप से समृद्ध रही है, लेकिन इसमें ढोंगियों की तादाद भी कम नहीं रही है।संत और असंत को पहचानने की जरूरत है। भगवान को डाक्टर, वैद्य या श्रंगीश्रषि की तरह पुत्र काम यज्ञ कराने वाला समझना बंद किए बिना बुंदेली बाबाओं की नौटंकियो से निजात मिलना नामुमकिन है।
@ राकेश अचल

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