@विनोद भगत
फिल्म अभिनेता धर्मेंद्र के निधन की झूठी खबर ने न केवल देशभर में अफरा-तफरी मचाई बल्कि इसने भारतीय मीडिया की विश्वसनीयता पर गहरा प्रश्नचिह्न भी खड़ा कर दिया है। सोशल मीडिया पर फैलती अफवाह को कई मीडिया संस्थानों ने बिना पुष्टि के “ब्रेकिंग न्यूज” के रूप में प्रसारित किया, जिससे यह साफ झलक गया कि आज की मीडिया के लिए टीआरपी और क्लिक रेटिंग सच से कहीं अधिक महत्वपूर्ण हो चुकी है।
दरअसल, यह पहली बार नहीं है जब किसी सेलिब्रिटी की “मौत की खबर” फैलाकर मीडिया ने अपनी गैर-जिम्मेदारी दिखाई हो। कुछ महीने पहले भी ऐसी ही खबरें कई हस्तियों को लेकर वायरल हुईं थीं, जिनमें बाद में स्वयं संबंधित व्यक्तियों या उनके परिवारों को सामने आकर सफाई देनी पड़ी थी। धर्मेंद्र के मामले में भी यही हुआ — जब बेटी ईशा देओल को स्वयं सामने आकर यह बताना पड़ा कि उनके पिता पूरी तरह स्वस्थ हैं और ऐसी खबरें झूठी हैं।
यह प्रकरण केवल एक अफवाह नहीं बल्कि भारतीय मीडिया की वर्तमान स्थिति का आईना है। विश्व स्तर पर मीडिया स्वतंत्रता और विश्वसनीयता की जो रैंकिंग हर साल जारी होती है, उसमें भारत लगातार नीचे जा रहा है। कारण साफ है — खबरों की सटीकता और सत्यापन की बजाय ‘पहले चलाओ, बाद में जांचो’ का चलन अब आम हो गया है। खबरों की पुष्टि के बुनियादी सिद्धांतों को ताक पर रखकर मीडिया हाउस एक-दूसरे से आगे निकलने की होड़ में हैं।
सबसे चिंताजनक बात यह है कि झूठी खबरों के प्रसार पर नियंत्रण के लिए बने सरकारी संस्थान और नियामक निकाय भी इस मामले में पूरी तरह असहाय दिखे। हर बार की तरह इस बार भी कोई ठोस कार्रवाई नहीं हुई, बस “जांच होगी” और “कठोर कदम उठाए जाएंगे” जैसे बयान भर जारी हुए। सवाल उठता है कि जब मीडिया अपने ही बनाए आचार संहिता का पालन नहीं कर पा रहा, तब इस पर निगरानी रखने वाले तंत्र की उपयोगिता क्या रह जाती है?
आज भारतीय मीडिया एक ऐसे मोड़ पर खड़ा है जहाँ उसकी साख गहराई में जा चुकी है। पहले मीडिया को लोकतंत्र का चौथा स्तंभ कहा जाता था, लेकिन अब यह स्तंभ झूठ और सनसनीखेज़ रिपोर्टिंग के बोझ तले चरमराने लगा है। धर्मेंद्र जैसे वरिष्ठ और सम्मानित कलाकार के नाम पर फैलाई गई झूठी खबर ने यह साबित कर दिया कि मीडिया को न तो नैतिक जिम्मेदारी का बोध रह गया है और न ही समाज के प्रति संवेदनशीलता का।
यह समय आत्ममंथन का है — मीडिया संस्थानों के लिए भी और उन दर्शकों के लिए भी जो बिना जांचे-परखे किसी भी “ब्रेकिंग न्यूज” पर विश्वास कर लेते हैं। यदि मीडिया का यह पतन नहीं रुका, तो आने वाले समय में न केवल खबरों पर भरोसा खत्म होगा बल्कि लोकतंत्र के लिए यह एक गहरा खतरा बन जाएगा।
धर्मेंद्र की झूठी मौत की खबर केवल एक अफवाह नहीं थी — यह भारतीय मीडिया की गिरती विश्वसनीयता, बेमतलब की प्रतिस्पर्धा और नैतिक पतन की जीवंत मिसाल बन गई है। जब तक सच्चाई को खबरों की प्राथमिकता में पहला स्थान नहीं मिलेगा, तब तक “ब्रेकिंग न्यूज” का यह नशा समाज को गुमराह करता रहेगा।
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