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बताशे का इतिहास: पूजा की परंपरा में कब और कैसे शामिल हुआ यह मीठा प्रसाद? मुगल काल में ज्यादा बढ़ा प्रचलन?

@शब्द दूत ब्यूरो (11 अक्टूबर 2025)

भारत में पूजा-अर्चना में बताशे चढ़ाने की परंपरा आज लगभग हर घर में दिखाई देती है। देवी-देवताओं के समक्ष रखे जाने वाले ये सफेद, हल्के और मीठे बताशे अब पूजा का अभिन्न हिस्सा बन चुके हैं। और दीवाली से पहले आजकल बताशों में कीटनाशक और गंदे तरीके से इनके निर्माण को लेकर चर्चा छिड़ गयी है। कुछ जगहों पर छापेमारी भी की गई जहां अस्वास्थ्यकर माहौल में इनका निर्माण किया जा रहा था।

लेकिन क्या कभी आपने सोचा है कि यह परंपरा कब शुरू हुई? क्या बताशों का उल्लेख हमारे प्राचीन धर्मग्रंथों में मिलता है? इन प्रश्नों के उत्तर हमें भारतीय इतिहास और संस्कृति की गहराइयों में ले जाते हैं।

बताशा दरअसल उबली हुई चीनी के सिरप को फेंटकर सुखाने से बनने वाली एक हल्की मिठाई है। यह उस समय संभव हुई जब भारत में परिष्कृत चीनी का निर्माण शुरू हुआ। प्राचीन भारत में मिठास के लिए मुख्य रूप से गुड़ और शहद का प्रयोग होता था। गुप्त काल यानी लगभग चौथी-पाँचवीं शताब्दी ईस्वी में भारत में सफेद चीनी बनाने की तकनीक विकसित हुई, जिसे संस्कृत में शर्करा कहा गया। उसी से आगे चलकर “बताशा” जैसी वस्तुओं का जन्म हुआ।

धार्मिक दृष्टि से देखें तो वैदिक और पुराण कालीन ग्रंथों—जैसे ऋग्वेद, रामायण, महाभारत या मनुस्मृति—में बताशे का कोई उल्लेख नहीं मिलता। इन ग्रंथों में “गुड़”, “मधु” (शहद) और “लाज” (फुले हुए चावल) का उल्लेख अवश्य है, जो उस समय देवताओं को अर्पित किए जाने वाले प्रमुख प्रसाद थे। परंतु “बताशा” शब्द या शक्कर से बनी किसी वस्तु का उल्लेख इनमें नहीं मिलता।

मध्यकालीन धार्मिक ग्रंथों और कर्मकांडों में चीनी का उल्लेख “शर्करा फल”, “शर्करा पात्र” या “शर्करावली” के रूप में आने लगता है। इनका प्रयोग पूजा और नैवेद्य में किया जाने लगा था। संभवतः यहीं से चीनी से बनी मिठाईयों का, और बाद में बताशे का, धार्मिक विधानों में प्रवेश हुआ।

इतिहासकारों का मानना है कि बताशे का चलन मुगल काल (16वीं सदी) में अधिक फैल गया, जब भारत में चीनी उत्पादन बड़े पैमाने पर होने लगा। उस समय यह सस्ती, टिकाऊ और शुद्ध वस्तु थी—जिसे ग्रामीण और शहरी दोनों समाजों ने प्रसाद के रूप में अपनाया। धीरे-धीरे यह दीपावली, होली, विवाह संस्कारों और ग्राम्य देवताओं की पूजा का अहम हिस्सा बन गई।

बताशा सफेद रंग का और हल्की मिठास वाला होता है, इसलिए इसे सात्त्विक प्रसाद माना गया। सफेद रंग को शुद्धता और पवित्रता का प्रतीक समझा जाता है। शिव और लक्ष्मी पूजन में सफेद वस्त्र, सफेद पुष्प और सफेद प्रसाद का विशेष महत्व है। यही कारण है कि बताशा इन पूजाओं में सर्वाधिक उपयोग किया जाने वाला प्रसाद बन गया।

समग्र रूप से देखें तो बताशा कोई वैदिक प्रसाद नहीं, बल्कि मध्यकालीन भारत की देन है। यह परंपरा चीनी के प्रसार और समाज की सरल पूजा-विधि के साथ विकसित हुई। आज भले ही कोई शास्त्र बताशे का उल्लेख न करता हो, लेकिन भारतीय संस्कृति में यह “शुद्धता और मधुरता का प्रतीक” बन चुका है।

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