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भगवान और डाक्टर? एक कड़वी सच्चाई

@विनोद भगत

सरकारी दफ्तर की पुरानी फाइलों और धूलभरे रजिस्टरों के बीच एक युवक खड़ा था। उसके चेहरे पर उम्मीद की हल्की चमक थी—शायद आज उसका काम बन ही जाए। सामने बैठे बाबूजी टेबल पर कागजों का पहाड़ लगाकर बैठे थे, जैसे किसी युद्ध की रणनीति तैयार कर रहे हों।

“सर, काम तो हो जाएगा ना मेरा?” युवक ने धीरे से कहा।

कर्मचारी ने ऊपर देखा, मुस्कराया, और कुर्सी पर थोड़ा पीछे झुकते हुए बोला, “अरे कैसी बात कर रहे हो यार? अब तुमने दो हजार दिए हैं मुझे, काम क्यों नहीं होगा तुम्हारा? हम ईमानदार हैं, पैसे लेकर काम न करें, इतने भी बेईमान नहीं हैं!”

उसके चेहरे पर वही मुस्कान थी—जो सालों की सरकारी सेवा में विकसित हो जाती है। मुस्कान में अपनापन भी था और चालाकी का रंग भी। युवक के चेहरे पर राहत की एक झलक आई। लगता था जैसे उसके सीने से कोई भारी पत्थर हट गया हो।

कर्मचारी ने बात बदलते हुए कहा, “अरे यार, चाय पीओगे?”

“नहीं सर, बस आप काम करवा दीजिए,” युवक ने हिचकिचाते हुए कहा।

“नहीं नहीं, चाय तो पीनी ही पड़ेगी,” कर्मचारी ने ज़ोर देकर कहा और आवाज़ लगाई, “रवि! दो चाय लेकर आना… और हाँ, मेरी चाय फीकी लाना।”

युवक मुस्कराया, “सर, फीकी चाय क्यों?”

कर्मचारी ने गंभीरता से जवाब दिया, “अरे यार, मुझे डायबिटीज है। डॉक्टर ने चीनी को मना किया है। इस डर की वजह से मैं फीकी चाय पीता हूँ… डर लगता है कि शुगर बढ़ न जाए।”

उसका चेहरा अचानक गंभीर हो गया। जैसे अपने डर का बोझ खुद महसूस कर रहा हो।

युवक उसे ध्यान से देख रहा था — उस चेहरे को, जो शायद रोज़ सौ झूठ बोलता था, पर अपने शरीर की सच्चाई से डरता था। कुछ देर की चुप्पी के बाद युवक ने पूछा,

“सर, आप ईश्वर को मानते हैं?”

कर्मचारी थोड़ा चौंका, फिर बोला, “अरे भाई, ये भी कोई पूछने वाली बात है! मैं तो भगवान में पूरा विश्वास रखता हूँ।”

युवक के होंठों पर हल्की मुस्कान आई। उसने शांत स्वर में कहा,
“सर, डॉक्टर की बात मानकर आप चीनी नहीं खाते, क्योंकि डर है कि बीमारी बढ़ जाएगी। लेकिन जिस भगवान में आप विश्वास रखते हैं, उसके डर से आपने रिश्वत क्यों ली? डॉक्टर की बात मानना आपको जरूरी लगा, पर भगवान का डर नहीं?”

कर्मचारी जैसे पत्थर बन गया। उसका चेहरा उतर गया।

कमरे की हवा अचानक भारी लगने लगी। दीवारों पर टंगी गांधीजी की तस्वीर जैसे एक सवाल पूछ रही थी—“क्या यही ईमानदारी है?”

रवि चाय लेकर आ गया। उसने ट्रे टेबल पर रखी और बाहर चला गया। दोनों चाय कपों से भाप उठ रही थी। एक फीकी, एक मीठी।

कर्मचारी ने फीकी चाय उठाई, होंठों तक लाई, पर पी नहीं पाया। उसके हाथ कांप रहे थे। कप धीरे-धीरे नीचे रख दिया गया।

युवक उठकर चला गया, बिना कुछ और कहे। पीछे रह गया सिर्फ एक सवाल—
“डर शुगर का है… या भगवान का?”

और उस दिन पहली बार, कर्मचारी को फीकी चाय नहीं, अपने भीतर का स्वाद फीका लगा।

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