@विनोद भगत
विवाह भारतीय समाज की सबसे अहम संस्था मानी जाती है। इसे केवल दो व्यक्तियों का ही नहीं, बल्कि दो परिवारों का पवित्र बंधन कहा जाता है। लेकिन पिछले कुछ वर्षों में देखने में आ रहा है कि विवाह के बाद संबंधों में खटास तेजी से बढ़ रही है। कई मामलों में पत्नियाँ पति से यह कहती हुई पाई जाती हैं – “न तलाक लूंगी, न चैन से रहने दूंगी।” यह स्थिति केवल परिवार के भीतर ही तनाव नहीं पैदा करती, बल्कि समाज और प्रशासनिक स्तर पर भी गंभीर समस्याएँ खड़ी कर देती है।
विवाह के बाद जब पति-पत्नी के बीच सामंजस्य नहीं बैठता तो उसका सीधा असर पति पर अधिक पड़ता है। समाज और पुलिस-प्रशासन प्रायः ऐसे मामलों में पति और उसके परिवार को ही दोषी ठहरा देते हैं। नतीजा यह होता है कि युवक को मानसिक, सामाजिक और आर्थिक रूप से बड़ी विषम परिस्थितियों का सामना करना पड़ता है।
पुलिस और प्रशासनिक दबाव की वजह से भी पति पक्ष को हताशा मिलती है। शिकायत मिलते ही अक्सर जांच से पहले ही पति और उसके परिजनों को प्रताड़ित किया जाता है।
वहीं सामाजिक उलाहने भी इसके लिए जिम्मेदार हैं। पत्नी के पक्ष में खड़ा समाज ससुराल वालों को गलत ठहराने लगता है। घर के भीतर पत्नी का उत्पीड़न और बाहर समाज का तिरस्कार युवक को हताशा और अवसाद की ओर धकेल देता है। मायके पक्ष से बिना दूरगामी परिणामों को सोचे गए हस्तक्षेप से विवाह टूटने की कगार पर पहुँच जाता है।ऐसे मामलों में देखा गया है कि कानूनी प्रावधानों का दुरुपयोग भी हो जाता है। महिलाओं की सुरक्षा हेतु बनाए गए कानूनों का कभी-कभी हथियार की तरह इस्तेमाल होना।
बहुत हद तक इसमें आधुनिक जीवनशैली का दबाव भी इसका एक कारण माना जा सकता है। बदलती अपेक्षाएँ और असहिष्णुता के चलते ये मामले बढ़ रहे हैं।
इस समस्या का हल केवल कानून या प्रशासनिक कार्रवाई से नहीं निकल सकता। इसके लिए समाज और परिवार दोनों स्तर पर संतुलित दृष्टिकोण अपनाना होगा।
परामर्श केंद्रों की भूमिका भी इसमें महत्वपूर्ण है। हर जिले में फैमिली काउंसलिंग सेंटर को मजबूत किया जाए, ताकि पति-पत्नी के विवाद बातचीत से सुलझाए जा सकें। वहीं कानून का संतुलित उपयोग किया जाये। प्रशासन को चाहिए कि किसी भी पक्ष को दोषी ठहराने से पहले निष्पक्ष जांच करे।
वैसे ऐसे मामलों में ज्यादा भूमिका मायके पक्ष को निभानी होगी। जिस माँ ने अपना जीवन खुशी खुशी अपने पति के साथ बिताया हो उसे यह समझना होगा कि अतिवादी रुख अपनाने से बेटी का जीवन और भी कठिन हो सकता है। विवाह को केवल सामाजिक दिखावा न मानकर, आपसी समझ और सहयोग का बंधन समझाया जाए।
यह सच है कि विवाह में दोनों पक्षों को समान अधिकार और सम्मान मिलना चाहिए। लेकिन यदि एक पक्ष अपने अधिकारों का गलत प्रयोग करता है तो इसका खामियाजा पूरा परिवार भुगतता है। इसलिए समाज, प्रशासन और परिवार—तीनों को संतुलित और न्यायपूर्ण दृष्टिकोण अपनाना होगा। तभी विवाह संस्था की गरिमा बनी रहेगी और युवा पीढ़ी सुरक्षित व संतुलित जीवन जी पाएगी। ऐसे मामले आपके आसपास होंगे पर आप केवल देख और महसूस कर सकते हैं और खुद को असहाय पाते हैं। अंततः एक परिवार बर्बाद हो जाता है। हालांकि यह भी सही है कि हर महिला ऐसा नहीं करती। पर आजकल इस तरह के मामले समाज में बढ़ रहे हैं।
डिस्क्लेमर :लेख पर पाठक अपनी सहमति या असहमति व्यक्त कर सकते हैं।
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