@शब्द दूत ब्यूरो (16 अगस्त 2025)
भारत का पूर्वोत्तर क्षेत्र विविध जनजातीय परंपराओं और विशिष्ट खान-पान संस्कृति के लिए जाना जाता है। नागालैंड भी इन्हीं में से एक राज्य है, जहाँ खान-पान केवल स्वाद तक सीमित नहीं बल्कि सामाजिक पहचान और सांस्कृतिक धरोहर से जुड़ा हुआ है। यहाँ की कई जनजातियों में कुत्ते का मांस लंबे समय से भोजन का हिस्सा रहा है।
नागालैंड में दर्जनों जनजातियाँ निवास करती हैं और प्रत्येक की अपनी अलग जीवनशैली और परंपराएँ हैं। कुत्ते का मांस विशेष रूप से एंगामी, लोथा, सेमा, चखेशांग जैसी जनजातियों में लोकप्रिय रहा है। इसे शक्ति, साहस और स्वास्थ्य का प्रतीक माना जाता था।पारंपरिक रूप से लोग मानते थे कि यह शरीर को गर्म रखता है और कठिन श्रम या युद्ध के बाद ऊर्जा देता है।
ब्रिटिश नृविज्ञानी जे.एच. हटन ने बीसवीं सदी की शुरुआत में अपने लेखन में दर्ज किया था कि नागा लोग खास मौकों पर कुत्ते का मांस खाते थे और कई बार इसका आदान-प्रदान भी करते थे। कुछ मान्यताओं में इसे औषधीय महत्व भी दिया जाता था।
हालाँकि यह परंपरा पुरानी है, लेकिन आधुनिक समय में नागालैंड के कई युवा इसे अपनाना पसंद नहीं करते। उनका मानना है कि कुत्ता इंसान का साथी है और उसका मांस खाना उचित नहीं। सोशल मीडिया और शहरी प्रभावों ने भी लोगों के दृष्टिकोण को बदलने में भूमिका निभाई है।
जुलाई 2020 में नागालैंड सरकार ने कुत्ते के मांस की बिक्री, व्यापार और आयात पर प्रतिबंध लगाने की घोषणा की। इसका मुख्य कारण था –पशु अधिकार संगठनों का दबाव ,बाजारों में कुत्तों की अमानवीय स्थितियाँ,अंतरराष्ट्रीय स्तर पर इस प्रथा पर उठते सवाल।
इस निर्णय पर नागालैंड के भीतर तीखी प्रतिक्रियाएँ आईं। कई समुदायों ने इसे संस्कृति पर हमला बताया, जबकि पशु-प्रेमी संगठनों ने सरकार की सराहना की।
जून 2023 में गौहाटी उच्च न्यायालय (कोहिमा बेंच) ने इस प्रतिबंध को असंवैधानिक बताते हुए रद्द कर दिया।अदालत ने माना कि कुत्ते का मांस नागा समाज में लंबे समय से “एक स्वीकृत भोजन” है।प्रतिबंध लगाने से उन लोगों की आजीविका पर भी असर पड़ा जो इस व्यापार से जुड़े थे। न्यायालय का मानना था कि सरकार ने विधायी प्रक्रिया का पालन किए बिना सीधे आदेश जारी किया, जो अनुचित था।
आज (2025 तक) नागालैंड में कुत्ते का मांस कानूनी रूप से वैध है। लेकिन यह सभी लोगों द्वारा नहीं खाया जाता।ग्रामीण क्षेत्रों और कुछ जनजातियों में यह परंपरा अब भी जीवित है।शहरी इलाकों और नई पीढ़ी में इसके प्रति झुकाव कम होता जा रहा है।
समाज में इस विषय को लेकर दोहरी सोच है—कुछ लोग इसे सांस्कृतिक धरोहर मानते हैं, जबकि अन्य इसे अस्वीकार्य और अमानवीय परंपरा मानते हैं।
नागालैंड ही नहीं, बल्कि पूर्वोत्तर के कुछ अन्य हिस्सों जैसे असम, मणिपुर, मेघालय और अरुणाचल प्रदेश में भी कहीं-कहीं कुत्ते का मांस खाने की परंपरा रही है। भारत से बाहर चीन, दक्षिण कोरिया और वियतनाम जैसे देशों में भी यह भोजन कभी आम था, हालांकि वहाँ भी इसे लेकर विरोध बढ़ रहा है।
नागालैंड में कुत्ते का मांस केवल भोजन नहीं, बल्कि एक सांस्कृतिक पहचान और इतिहास का हिस्सा रहा है। हालांकि, बदलते समय, सामाजिक विचारधाराओं और पशु अधिकारों की जागरूकता के कारण इस परंपरा पर प्रश्नचिह्न लगते रहे हैं। अदालत के फैसले ने इसे कानूनी मान्यता तो दी है, लेकिन नागा समाज के भीतर इस विषय पर विचारों का टकराव जारी है।
भविष्य में यह परंपरा कितनी बनी रहेगी, यह नागालैंड की अगली पीढ़ियों की सोच पर निर्भर करेगा।
Shabddoot – शब्द दूत Online News Portal

