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तबादलों की खबरें और हमारे समाज की संरचना

@देवेंद्र कुमार बुडाकोटी

मैं कई वर्षों से यह सोचता आ रहा हूँ कि जब किसी सरकारी अधिकारी का तबादला होता है, तो यह खबर क्यों बनती है? क्या इन तबादलों से व्यवस्था में कोई मूलभूत परिवर्तन होता है? या फिर यह सिर्फ एक सांकेतिक याद दिलाने की कवायद है कि राज्य जिसे हम ‘सरकार’ कहते हैं-हमारे जीवन के हर चरण में उपस्थित है: जन्म से लेकर मृत्यु तक। इसलिए प्रचलन में आया, ‘मई बाप सरकार’ !

क्या यह तबादलों की खबरें प्रकाशित करना एक प्रकार का सांस्कृतिक-सामाजिक यंत्र है, जिसके माध्यम से जनता को यह स्मरण कराया जाता है कि ‘सिविल सेवक’ केवल एक कर्मचारी नहीं, बल्कि एक ‘शासकीय प्रतिनिधि’ हैं-एक ऐसा व्यक्ति जिसे सत्ता, सम्मान और जिम्मेदारी का प्रतिरूप माना जाना चाहिए?

सिविल सेवा में चयन की प्रक्रिया स्वयं इस पद की सामाजिक प्रतिष्ठा को पुष्ट करती है। हर वर्ष लगभग 12 से 15 लाख लोग सिविल सेवा की प्रारंभिक परीक्षा के लिए आवेदन करते हैं। इनमें से 10-12 लाख ही वास्तविक रूप से परीक्षा में बैठते हैं, और 4-5 लाख केवल आवेदन कर रुक जाते हैं, यह सोचकर कि उनकी तैयारी अभी अधूरी है।

इन लाखों में से लगभग 10,000 अभ्यर्थी ही मुख्य परीक्षा में पहुँचते हैं। मुख्य परीक्षा के बाद केवल 3,000 अभ्यर्थियों को साक्षात्कार के लिए बुलाया जाता है, और अंततः लगभग 900-1,000 को सेवाओं में नियुक्ति मिलती है। इनमें भी महज 250-300 को ही भारतीय प्रशासनिक सेवा (IAS), विदेश सेवा (IFS) या पुलिस सेवा (IPS) जैसी शीर्ष सेवाओं में स्थान मिलता है।

इस चयन प्रक्रिया की कठिनता, और इसके बाद मिलने वाले वेतन, विशेषाधिकार, और सामाजिक हैसियत, इस पेशे को ‘अभिजात वर्ग’ की श्रेणी में ला खड़ा करते हैं। यह एक ऐसी स्थिति उत्पन्न करती है जहाँ नौकरशाही महज प्रशासनिक ढांचा नहीं रह जाती, बल्कि यह एक सामाजिक प्रतीक बन जाती है-सामान्य नागरिक के लिए ‘सफलता’ और ‘सत्ता’ का अंतिम लक्ष्य।

इस परिप्रेक्ष्य में तबादले की खबरें महज स्थानांतरण की सूचना नहीं होतीं, बल्कि यह उस पद और व्यक्ति की ‘सामाजिक दृश्यता’ (social visibility) को पुनः पुष्ट करती हैं। यह हमारे औपनिवेशिक विरासत से उपजे मानसिक ढांचे का ही हिस्सा है, जहाँ ‘सरकारी अफसर’ को ‘सरकारी मालिक’ की तरह देखा जाता है।

यह मानसिकता इतनी जल्दी नहीं बदलेगी। जब तक यह संरचना बनी रहेगी, तबादलों की खबरें समाज के लिए सिर्फ सूचना नहीं, बल्कि शक्ति के प्रदर्शन और सामाजिक स्मृति का हिस्सा बनी रहेंगी।

नोट-लेखक एक समाजशास्त्री है और JNU के छात्र रहे है। उनका शोध कार्य का उल्लेख नोबेल पुरस्कार प्राप्त प्रोफेसर डॉक्टर अमर्त्य सेन के किताबों में उल्लेख किया है।

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