@विनोद भगत
शहर का नाम था शीकापुर — नाम जितना शांत, अंदरुनी राजनीति उतनी ही खदबदाती हुई। इस नगर में हाल ही में हुए निकाय चुनावों में वार्ड नं. 11 से श्रीमती सुनयना देवी पार्षद चुनी गई थीं। अब सुनयना देवी का राजनीति से न कोई खास वास्ता था, न ही कोई विशेष लगाव, पर उनके पति श्री रमेश जी ने यह खाली सीट देखकर तुरंत चुनावी मैदान में उतरने का मन बना लिया — पत्नी के नाम से।
जैसे ही चुनाव परिणाम आया और सुनयना देवी ने जीत का स्वाद चखा, वैसे ही रमेश जी ने पार्षदपति पद की शपथ अपने मन में ग्रहण कर ली। शपथ क्या, मानो पूरा नगर उन्हें उसी नाम से जानने लगा – “अरे वो देखो, पार्षदपति जी आ रहे हैं।”
रमेश जी का रुतबा बढ़ा, टोपी ऊँची हुई, और कुर्ता अब थोड़ा और खादीमय हो चला। अब वे स्वयं को किसी अनुभवी जनसेवक से कम नहीं मानते थे।
एक दिन वार्ड की किसी समस्या को लेकर रमेश जी को तहसील कार्यालय की ओर कूच करना पड़ा। वहाँ की एसडीएम थीं — श्रीमती मंजुलता जी, जो पीसीएस अधिकारी थीं और एकदम सख्त अनुशासनप्रिय।
रमेश जी ने ऑफिस के बाहर खड़े अर्दली को कहा,
“भैया, अंदर संदेश भिजवाओ, पार्षदपति जी मिलने आए हैं।”
अर्दली थोड़ी देर में वापस आया, बोला —
“बैठिए, बुलावा आएगा।”
रमेश जी थोड़ा खिन्न हो उठे, पर लोक सेवक का मुखमंडल बनाकर कुर्सी पर विराजमान हो गए। इतने में एक सूट-बूटधारी व्यक्ति बगैर अर्दली से पूछे सीधे एसडीएम कार्यालय में घुस गया। रमेश जी को लगा लोकतंत्र का अपमान हो गया।
“हम जैसे जनप्रतिनिधि प्रतीक्षा करें और ये साहब सीधे भीतर! हद है!”
पाँच मिनट बाद अर्दली ने उन्हें अंदर चलने का इशारा किया। रमेश जी सीना तानकर भीतर घुसे, लेकिन सामने कुर्सी पर मंजुलता जी नहीं थीं, बल्कि वही सूट-बूटधारी सज्जन आराम से बैठकर चाय की चुस्कियां ले रहे थे।
“जी आप?” रमेश जी ने आँखें मटकाकर पूछा।
“मैं मंजुलता जी का पति हूँ,” उस व्यक्ति ने मुस्कराकर उत्तर दिया।
रमेश जी चौंक पड़े।
“अरे! तो आप एसडीएम के पति हैं, फिर इस कुर्सी पर क्यों बैठे हैं? ये तो एसडीएम का कार्यक्षेत्र है!”
वह सज्जन और भी ठहराव से बोले –
“वैसे ही, जैसे आप पार्षद पत्नी के स्थान पर वार्ड चला रहे हैं।”
रमेश जी को जैसे कोई आइना दिखा दिया गया हो। उनका चेहरा ज़रा झुका, ज़रा चढ़ा।
“पर… ये… मेरा मतलब…,” उन्होंने कुछ कहने की कोशिश की।
“देखिए श्रीमान,” वह सज्जन बोले, “जब आप अपनी पत्नी के पद का लाभ उठाकर निर्णय लेने आते हैं, तो मुझे भी पूरा अधिकार है कि मैं अपनी पत्नी के ऑफिस में बैठकर फाइलें पलटूं। दोनों ही स्थितियों में असली पदधारी महिला हैं — और दोनों ही मामलों में पुरुष पर्दे के आगे हैं।”
रमेश जी को पहली बार पारदर्शिता का असली अर्थ समझ आया — पार और दर्पण एक साथ।
थोड़ी देर बाद मंजुलता जी आईं। दोनों पतियों ने एक-दूसरे को नमस्कार किया और फिर बाहर निकल आए — एक के चेहरे पर हल्की शर्मिंदगी थी, दूसरे के चेहरे पर व्यंग्य की गहराई।
( अगर पत्नी जनप्रतिनिधि है, तो कृपया ‘पति’ बनें, ‘प्रतिनिधि’ नहीं। अन्यथा, कहीं कोई एसडीएमपति आपकी कुर्सी पर बैठा मिल जाएगा — तर्क सहित – लेखक)
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