@विनोद भगत
आज के समय में जब सिनेमा समाज का सबसे प्रभावशाली माध्यम बन चुका है, तब यह सोचना अत्यंत आवश्यक हो गया है कि यह माध्यम किस दिशा में जा रहा है। भारतीय सिनेमा, जिसने कभी धार्मिक, ऐतिहासिक और सांस्कृतिक मूल्यों को जन-जन तक पहुँचाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी, अब धीरे-धीरे हिंसा, मारधाड़, ग्लैमर और पश्चिमी संस्कृति की छाया में अपनी मूल आत्मा को खोता जा रहा है। 50 की आयु के लोग जानते होंगे कि उनके शिक्षा काल में स्वस्थ और मनोरंजक फिल्में स्कूल की ओर से दिखाई जाती थी। लेकिन आज स्थिति अलग है। आज देश के पुराने दौर को शर्मनाक दर्शाने वाली फिल्मों को प्रोत्साहित किया जाता है केवल अपने राजनीतिक स्वार्थ के लिए।
एक दौर था जब रामायण, महाभारत, संत तुकाराम, संत ज्ञानेश्वर, मीरा बाई, तुलसीदास, चैतन्य महाप्रभु जैसे धार्मिक महापुरुषों और पौराणिक अवतारों पर फिल्में बनती थीं। इन फिल्मों का उद्देश्य केवल मनोरंजन नहीं, बल्कि जनमानस को आध्यात्मिक और नैतिक दृष्टि से शिक्षित करना भी होता था। ये फिल्में न केवल भव्यता में समृद्ध थीं, बल्कि भारतीय संस्कृति के मूल तत्वों – सत्य, धर्म, करुणा, संयम, त्याग और आस्था – को परदे पर जीवंत कर देती थीं।
लेकिन अब सिनेमा का मुख्य उद्देश्य “मनोरंजन” से हटकर “मुनाफा” बन गया है। निर्माता-निर्देशक अब वह बनाना चाहते हैं जो ‘चटपटा’ हो, जो ‘तेज बिके’, जो ‘वायरल हो जाए’। इस दौड़ में धार्मिक और ऐतिहासिक विषय ‘जोखिम भरे’, ‘विवादास्पद’ और ‘कमर्शियल रूप से कम लाभकारी’ माने जाने लगे हैं। परिणामस्वरूप, अब स्क्रीन पर अधिकतर ऐसी फिल्में देखने को मिलती हैं जिनमें हिंसा, मारधाड़, अपराध, असभ्य भाषा, और नैतिक पतन को रोमांचक ढंग से परोसा जाता है।
जब कोई बच्चा आज बड़े पर्दे या ओटीटी पर फिल्में देखता है, तो वह वहां मारधाड़, ड्रग्स, गाली-गलौच, रोमांस और अंधी भौतिकता से भरी कहानियाँ पाता है। उसे न तो संत कबीर के दोहे मिलते हैं, न राम की मर्यादा, न कृष्ण की लीलाएँ, न शिव का तांडव, और न गुरु नानक का सच्चा मार्ग। इसका परिणाम यह हो रहा है कि नई पीढ़ी अपने मूल धर्म, परंपरा, इतिहास और सांस्कृतिक गौरव से कटती जा रही है।
आज के युवा को स्पाइडरमैन और बैटमैन की कहानी पता होती है, लेकिन नरसिंह अवतार या परशुराम के चरित्र की जानकारी नहीं होती। यह सांस्कृतिक विस्मरण का संकेत है, जिसे गंभीरता से लेने की आवश्यकता है।
यह केवल फिल्म उद्योग की विफलता नहीं है, बल्कि समाज की सामूहिक उदासीनता भी इसका कारण है। दर्शक भी वही देखता है जो प्रचारित होता है, और प्रचार वही होता है जो बिकता है। यदि दर्शक धार्मिक, ऐतिहासिक और सांस्कृतिक फिल्मों की मांग करें, तो निर्माता-निर्देशक भी उस दिशा में सोचना प्रारंभ करेंगे। आज के दर्शकों में भी अगर ‘धैर्य’ और ‘आस्था’ के प्रति रूचि हो, तो वह बाजार को मोड़ सकते हैं।
कुछेक प्रयास जरूर हुए हैं, जैसे ओम राउत की आदिपुरुष, जो रामकथा पर आधारित थी, परंतु वह भी विवादों और कथानक की गलत व्याख्या के कारण आलोचना का पात्र बन गई। इससे यह संदेश गया कि धार्मिक फिल्मों को बनाने से पहले गंभीर शोध और आस्था का सम्मान आवश्यक है।
अब ऐसी स्थिति में क्या किया जा सकता है? सरकार और सेंसर बोर्ड को प्रोत्साहन देना चाहिए कि वे धार्मिक-सांस्कृतिक विषयों पर बनने वाली फिल्मों को सब्सिडी और विशेष सहायता दें। स्कूलों-कॉलेजों में विद्यार्थियों को भारतीय इतिहास और धर्म पर आधारित फिल्में दिखाना अनिवार्य किया जाए।फिल्मकारों को सामाजिक जिम्मेदारी का बोध हो, केवल पैसा कमाने के उद्देश्य से नहीं, बल्कि पीढ़ियों को जोड़ने के उद्देश्य से सिनेमा का निर्माण हो। ओटीटी प्लेटफार्म पर भी संतुलन की आवश्यकता है, जहाँ ऐतिहासिक, धार्मिक और प्रेरक कथानकों को अधिक स्थान दिया जाए।
भारतीय सिनेमा केवल मनोरंजन का साधन नहीं है, वह समाज का दर्पण और पीढ़ियों का मार्गदर्शक भी है। जब परदे से महापुरुषों के जीवन गायब होंगे, तो किताबें और मंदिर भी उन्हें बचा नहीं पाएँगे। इसलिए समय की पुकार है कि सिनेमा फिर से अपने मूल संस्कारों की ओर लौटे, और भारत की आस्था, परंपरा और सांस्कृतिक चेतना को पुनः जीवंत करे।
अब बात करते हैं फिल्मों में राजनीति की भूमिका की। धार्मिक सिनेमा के क्षरण में एक मौन भागीदारी राजनीति की भी है।
भारतीय राजनीति में संस्कृति और धर्म का बड़ा स्थान रहा है, लेकिन विडंबना यह है कि जब बात इन मूल्यों को संरक्षण देने की आती है, तो राजनीतिक वर्ग चुप्पी साध लेता है या उसे केवल चुनावी एजेंडा तक सीमित कर देता है।
सरकारों के पास खेल, विज्ञान, तकनीक और यहां तक कि समलैंगिकता पर फिल्म बनाने के लिए योजनाएँ और अनुदान होते हैं, लेकिन धार्मिक-सांस्कृतिक फिल्मों के लिए कोई स्पष्ट नीति नहीं है। पौराणिक विषयों पर फिल्में बनाने के लिए प्रोत्साहन या सब्सिडी नहीं दी जाती, जिससे फिल्मकार ऐसे विषयों से कतराते हैं।
राजनीतिक डर और वोट बैंक की राजनीति का इसमें अहम योगदान है। धार्मिक फिल्में अक्सर किसी न किसी धार्मिक समुदाय की भावनाओं से जुड़ी होती हैं। राजनेता यह डर रखते हैं कि किसी भी धार्मिक या ऐतिहासिक चरित्र पर फिल्म बनती है और उसमें विवाद हुआ, तो उसका राजनीतिक नुकसान उठाना पड़ सकता है। इसीलिए वे ऐसे प्रयासों से खुद को दूर रखते हैं।
कुछ धार्मिक विषयों को ‘विवादास्पद’ बना कर अपनी स्वार्थ सिद्धि की जाती है। राजनीतिक प्रभाव से सेंसर बोर्ड भी संवेदनशील धार्मिक फिल्मों को पास करने में हिचकिचाता है। कई बार धर्म विशेष से जुड़े विषयों पर तो तुरंत आपत्ति दर्ज हो जाती है, लेकिन हिंसा, यौन दृश्य और अपराध आधारित फिल्मों को बड़े आराम से हरी झंडी मिल जाती है।
आज राजनीतिक संरक्षण उन्हीं फिल्मों को मिलता है जो किसी बड़े स्टार या ब्रांड से जुड़ी होती हैं। चाहे वे सामाजिक रूप से कितनी भी खोखली क्यों न हों। लेकिन अज्ञात या उभरते फिल्मकारों द्वारा बनाए गए धार्मिक या ऐतिहासिक विषयों पर कोई ध्यान नहीं देता।
राजनीति ने धीरे-धीरे धार्मिकता को एक विवादास्पद और कट्टरता से जुड़ा मुद्दा बना दिया है। जो फिल्मकार भक्ति या धर्म आधारित फिल्में बनाना चाहता है, उसे डर रहता है कि उसे एक खास विचारधारा से जोड़ दिया जाएगा या उस पर ‘प्रोपेगेंडा’ फैलाने का आरोप लगेगा।
अब आखिर इसका समाधान क्या हो सकता है? सरकारी फिल्म नीति में धार्मिक व सांस्कृतिक फिल्मों के लिए विशेष वर्ग जोड़ा जाए।राजनीतिक दलों को सिनेमा के माध्यम से सांस्कृतिक पुनरुद्धार को एक राष्ट्रहित के मुद्दे के रूप में लेना चाहिए। धार्मिक फिल्मों को प्रोत्साहित करने के लिए राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कार में विशेष श्रेणी बनाई जाए।
विवाद से डरने के बजाय, सभी धर्मों के लिए समान संवेदनशीलता के साथ समीचीन संवाद को बढ़ावा दिया जाए। आज राजनीति, जो कि समाज के मार्गदर्शक का कार्य करती है, यदि वही अपने सांस्कृतिक दायित्व से मुंह मोड़ ले, तो सिनेमा जैसे प्रभावी माध्यम भी भटकने लगते हैं। अगर भारतीय राजनीति सचमुच धर्म, संस्कृति और परंपरा के संरक्षण की इच्छुक है, तो उसे फिल्मों के माध्यम से भी यह कार्य करना होगा। वरना आने वाली पीढ़ियाँ न केवल अपनी जड़ों से कट जाएँगी, बल्कि उन्हें यह भी नहीं पता होगा कि वे किस धरोहर के उत्तराधिकारी हैं।
Shabddoot – शब्द दूत Online News Portal
