@विनोद भगत
पत्रकार क्यों बनते हैं? पत्रकार आखिर होते किसलिए हैं?
यह सवाल जितना सीधा है, उसका उत्तर उतना ही जटिल और समय की कसौटी पर जांचा-परखा गया है। पत्रकारिता, मात्र एक पेशा नहीं, बल्कि एक जिम्मेदारी है — समाज का दर्पण बनने की, सच्चाई को बेझिझक सामने रखने की, और सत्ता के गलियारों में दबे सच को उजागर करने की।
एक सच्चे पत्रकार की प्रेरणा, न तो किसी राजनीतिक दल का प्रवक्ता बनने में होती है, और न ही किसी कॉर्पोरेट घराने के प्रचारक बनने में। उसकी प्रेरणा होती है — समाज की अनसुनी आवाज़ों को शब्द देना, उन सिसकियों को मंच देना जो कभी मीडिया की हेडलाइन नहीं बन पातीं। पत्रकार बनना, एक बौद्धिक और नैतिक जिम्मेदारी का निर्वहन है, जो व्यवस्था की खामियों को उजागर करता है, न कि उन्हें छुपाता है।
पत्रकार का कार्य है — सत्य की खोज, जनता की बात सत्ता तक पहुंचाना, और सत्ता की जवाबदेही तय करना। यदि पत्रकारिता का उद्देश्य केवल सत्ता का पक्ष रखना होता, तो वह लोकतंत्र के चौथे स्तंभ के रूप में मान्यता नहीं पाती। पत्रकार का धर्म है सवाल करना, चाहे वह प्रधानमंत्री से हो या ग्राम पंचायत सचिव से।
जब पत्रकार सरकार की नीतियों, कार्यशैली या निर्णयों पर सवाल उठाता है, तो यह सत्ता-विरोध नहीं है। यह लोकतंत्र का स्वाभाविक और आवश्यक अंग है। आलोचना, देशद्रोह नहीं होती। आलोचना, लोकतंत्र की आत्मा होती है।
सरकार की कमियों को दिखाना, उसका विश्लेषण करना, और उससे जवाब मांगना — यह पत्रकार की ज़िम्मेदारी है, उसका कोई अपराध नहीं। यदि हर आलोचना को “सरकार-विरोध” कहा जाए, तो लोकतंत्र तानाशाही में बदलते देर नहीं लगेगी।
आज की मीडिया में एक बड़ा वर्ग सत्ता का चाटुकार बन चुका है। न्यूज़ स्टूडियो ‘रिपोर्टिंग’ के मंच से ‘प्रचार’ के मंच में बदलते जा रहे हैं। वे मुद्दे गायब हैं जो आम आदमी को प्रभावित करते हैं — बेरोजगारी, महंगाई, किसानों की आत्महत्याएं, शिक्षा और स्वास्थ्य की दुर्दशा।
इसके बदले दिखते हैं — सेलिब्रिटी की शादी, पाकिस्तान पर चीखती हेडलाइन, और विरोधी दलों की बेइज्जती।
ऐसे माहौल में जब कोई पत्रकार निर्भीक होकर सत्ता से सवाल करता है, तो उसे ‘देशविरोधी’, ‘टुकड़े-टुकड़े गैंग’ जैसे नामों से नवाज़ा जाता है।
सच्चा पत्रकार न बिकता है, न डरता है, न झुकता है। वह सत्ता के सामने सच रखने का साहस रखता है। उसकी लेखनी तलवार से अधिक धारदार होती है, और उसका उद्देश्य सिर्फ सनसनी नहीं, बल्कि जनजागरण होता है। वह पत्रकारिता को लोकतंत्र का प्रहरी मानता है, न कि शासकों का दरबारी।
पत्रकारिता का उद्देश्य है — सत्ता की नीतियों की विवेचना, जनता की पीड़ा की अभिव्यक्ति, और सत्य के पक्ष में खड़ा होना। अगर पत्रकार केवल सरकार के गुणगान में लगे रहेंगे, तो फिर अन्याय, भष्टाचार, शोषण, और जनविरोधी नीतियों के खिलाफ आवाज़ कौन उठाएगा?
पत्रकार का काम है सवाल पूछना — सत्ता से, समाज से, और कभी-कभी खुद से भी।
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