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कहानी :”रिश्तों में दरार लाती राजनीति”एक कड़वी दुखद हकीकत

@विनोद भगत

सर्दियों की गुनगुनी धूप में शीकापुर जिले के पास बसे छोटे से गाँव चंदनपुर की हवेली एक बार फिर चहक उठी थी। हवेली के सबसे बुजुर्ग सदस्य दीनानाथ जी के सबसे छोटे पोते रमेश की शादी थी। शहरों में बस चुके रिश्तेदार अब गाँव लौटे थे – कोई दिल्ली से आया था, कोई मुंबई से।

दीनानाथ जी, जो स्वतंत्रता संग्राम सेनानी रहे थे, अब 82  के हो चुके थे। चलने में कठिनाई थी, पर चेहरे पर संतोष की चमक थी। उनके लिए ये शादी किसी उत्सव से कम नहीं – जहाँ पूरा कुनबा एक साथ दिखाई देता।

शाम को आँगन में बैठकी लगी। अलाव के चारों ओर बच्चे मूँगफली और रेवड़ी में उलझे थे, और बड़े चाय की चुस्की लेते हुए गप्पें मार रहे थे। शादी की तैयारी ज़ोरों पर थी, पर सबसे ज़्यादा जोश ‘परिवार मिलने’ का था। दरअसल आज के व्यस्त और दौड़ भाग वाली जिंदगी की जद्दोजहद में उलझे परिवारों का मिलना ऐसे ही समारोह के अवसर पर हो पाता था। जब समारोह के बहाने परिवार के वो सदस्य जो बचपन में साथ रहे होते थे, समारोह में मिलकर अपनी पुरानी सुनहरी स्मृतियों को ताजा करते थे। सभी खुश थे।

गांव में दीनानाथ जी की बड़ी सी हवेली के सामने एक बड़ा बरगद का पेड़ था। दूसरे दिन की दोपहर। खाने के बाद सब उसी  बरगद के नीचे जमा हुए।

दीनानाथ जी के बड़े बेटे नरेंद्र  ने मोबाइल में एक वीडियो दिखाते हुए कहा –“देखो, अब तो सब कुछ सुधर रहा है, देश आगे बढ़ रहा है। ये सरकार कमाल कर रही है!”

तभी छोटा बेटा राहुल जो विश्वविद्यालय में राजनीति विज्ञान पढ़ा रहा था हल्के से मुस्कराया और बोला “देश बढ़ रहा है या नफरत?  अब वो माहौल नहीं रहा जो पहले कभी हुआ करता था।

नरेंद्र भड़क गया – “आप तो हमेशा आलोचना करते हैं! अब असली देशभक्तों को ही ग़लत ठहराओगे?”

बात बढ़ती चली गई। बीच में अखिलेश मामा कूद पड़े –
“भैया, व्हाट्सएप यूनिवर्सिटी से बाहर आओ। सब कुछ जो दिखाया जा रहा है वो सच नहीं होता।”

इसी बहसबाजी में परिवार एकाएक दो धड़ों में विभाजित हो गया। वह परिवार जो कभी आपस में मिलने के दौरान एक दूसरे के बारे में, नौकरी और बच्चों को लेकर एक दूसरे से जानकारी प्राप्त करता था। वह राजनीति में उलझ गया। दोनों अपने अपने तर्क देने लगे। तभी नरेंद्र ने पूर्वजों को लेकर कटाक्ष किया। नरेंद्र बोला अगर हमारे पूर्वजों ने ऐसा नहीं किया होता तो हम आज ऐसी बदतर स्थिति में नहीं होते। हमें गलत बातें सिखाई और पढ़ाई गई। तभी हम प्रगति नहीं कर पाये। राहुल को यह बात नागवार गुजरी।

राहुल ने विरोध करते हुए कहा ,”भैय्या”ये क्या कह रहे हैं। आज आप इतनी अच्छी स्थिति में है तो वह पूर्वजों की शिक्षा और सीख का फल है।

नरेंद्र बुरा सा मुंह बनाते हुए बोला, राहुल “तुम बड़े भैय्या की बात काट रहे हो। तुम्हें अपने बड़ों का सम्मान नहीं सिखाया गया क्या?

राहुल नरेंद्र की बात सुनकर बोला,”भैय्या,अभी तो आप अपने उन बड़े पूर्वजों की जो अब हमारे बीच नहीं हैं उनके सम्मान में आपने ही कुछ कहा था।

ये सुनकर नरेंद्र बुरी तरह भड़क गया और राहुल को भला बुरा कहना शुरू कर दिया।

दोनों की बहस सुनते हुए अब तक खामोश बैठी नरेंद्र की पत्नी यशोदा बीच में बोल उठी,”देखो,देवर जी तुम अपने भैय्या के मुंह मत लगो।

यशोदा को टोकते हुए राहुल की पत्नी माया ने अपनी जेठानी को उलाहना देते कहा,”जीजी, ठीक ही कह रहे हैं ये। जैसे बड़े बोलेंगे वैसे ही सुनेंगे भी।

बात बढ़ने लगी और दो पक्ष बन गए – ‘देशभक्त’ बनाम ‘देशविरोधी’।

बहस गरम हो गई, चेहरे लाल होने लगे। कहां तो ये लोग एक-दूसरे के सुख-दुख बांटने और बातें करने के लिए बैठे थे वहां खटास पैदा हो गई। पांव पटकते हुए दोनों भाई अपनी अपनी पत्नियों के साथ वहां से चले गये। दीनानाथ जी वहीं बैठे सब देख रहे थे। उनकी आँखें पहले बेचैन हुईं, फिर उदास। उन्हें दस साल पहले परिवार में हुई शादी याद आ गई। उस समय भी सभी लोग इकठ्ठा हुए थे और हंसी खुशी के साथ एक दूसरे से चुहलबाज़ी करते और विवाह समारोह का आनंद उठा रहे थे। कहीं कोई कटुता नहीं। और आज भी लोग तो वही है फिर ये कटुता किसने पैदा की। क्या नरेंद्र ने?या फिर राहुल ने? और फिर जिनके लिए ये लड़ रहे हैं क्या उनके परिवार में भी ऐसी कटुता है?

रात्रि का भोजन सब साथ बैठकर कर रहे थे लेकिन भोजन में भी गुटबाज़ी दिखने लगी। एक तरफ के लोग दूसरी तरफ वालों से कटने लगे।

बुआ जी, जो हर शादी में सबसे पहले साड़ी की पल्लू सँभालते हुए सभी से मिलती थीं, आज अलग बैठी थीं। लेकिन घर वालों का यह व्यवहार देखकर  बोली –
“हम तो शादी में मिलने आए थे, ये राजनीति क्यों घसीटी सबने?”

तभी श्यामलाल मामा ने माहौल को हल्का करने की कोशिश की।हँसते हुए बोले –
“अरे बेटा, अब तो घर-घर नेता बैठा है, बात शादी की करो तो भी कोई न कोई पार्टी बीच में आ ही जाती है।”

रात को दीनानाथ जी अपने पुराने लकड़ी के झूले पर बैठे कुछ सोच रहे थे। पोता रघुवीर पास आकर बोला –
“दादा जी, कुछ परेशान लग रहे हैं?”

दीनानाथ जी बोले –
“जिस देश की आज़ादी के लिए हमने खून बहाया, वहाँ आज लोग एक-दूसरे को मजहब और नेता के नाम पर लड़ रहे हैं। डर लगता है, कहीं ये दरार घरों के भीतर न आ जाए।”

तीसरे दिन हल्दी की रस्म थी। लेकिन सुबह से ही माहौल भारी था। नरेंद्र और राहुल अब एक-दूसरे से सीधे बात नहीं कर रहे थे।
बारात जाने के पहले छोटे से भोज का आयोजन था। परंतु दो परिवारों ने उसमें शामिल न होने का फैसला किया।
रचना को ये सब असह्य लगा –
“ये शादी है या चुनावी सभा?”

दोपहर को एक बुज़ुर्ग रिश्तेदार ने जब टोका कि “अब बहुत हो गया, माफ कर दो एक-दूसरे को”, तो जवाब आया –
“माफ कर दें, लेकिन सोच तो नहीं बदल सकती!”

रमेश , जिसकी शादी थी, बहुत खिन्न हो गया। उसने दीनानाथ जी से कहा –
“दादाजी , क्या मेरा जीवन भी इन झगड़ों में उलझ जाएगा? क्या अब हम केवल राजनीतिक विचारों से रिश्ते जोड़ेंगे?”

दीनानाथ जी चुप रहे। शायद उनके पास जवाब नहीं था।

शादी हो गई, लेकिन सब कुछ अधूरा-अधूरा सा रह गया। कोई ढंग से विदाई में नहीं आया, कोई फोटो खिंचवाने नहीं रुका।

शादी के एक महीने बाद दीनानाथ जी ने दुनिया छोड़ दी।

श्राद्ध में फिर से पूरा परिवार इकट्ठा हुआ। पर अब सन्नाटा था।
उनकी पुरानी संदूक से एक चिट्ठी मिली, जो उन्होंने अपनी मृत्यु से कुछ दिन पहले लिखी थी:

“मेरे बच्चों,
तुम सब मेरी आँखों की रौशनी हो। मैंने सोचा था कि मेरे जीवन का अंत तुम्हारी एकता देखकर होगा… लेकिन देखा कि राजनीति ने तुम सबके बीच दीवारें खड़ी कर दीं।

मैं पूछना चाहता हूँ – क्या किसी नेता ने आकर हमारे लिए आँसू बहाए? नहीं।

इसलिए याद रखना – विचार अलग हो सकते हैं, दिल नहीं।

मतभेद को मनभेद मत बनने दो।

तुम्हारा –
दीनानाथ”

चिट्ठी पढ़कर सबकी आँखें नम हो गईं।
नरेंद्र ने राहुल का हाथ पकड़ लिया –
“पिताजी की चिट्ठी पढ़कर समझ आ गया, हम लड़ते किसके लिए रहे थे…”

धीरे-धीरे बात बनी। दूरियाँ कुछ कम हुईं।
शायद पूरी तरह दरार न भरी हो, लेकिन शुरुआत हो गई।

 

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