गुरु पूर्णिमा हमारे यहां गुरुजनों को पूजने के लिए मुकर्रर की गयी तारीख है । कहते हैं कि इस तारीख को ‘ महाभारत ‘के रचयिता महृषि वेदव्यास जी का जन्म हुआ था । इस लिहाज से गुरु पूर्णिमा वेदव्यास जी की ‘ हैप्पी वर्थडे ‘ भी है। चूंकि हमारे कान में किसी ने कोई मन्त्र नहीं फूँका इसलिए हम ‘ निगुरु ‘ है। यानि हमारा कोई संवैधानिक या सनातन गुरु नहीं है । ये हमारी बदनसीबी है या खुशनसीबी ? इसके बारे में हमने न कभी सोचा और न हमें इसकी जरूरत पड़ी। लेकिन 140 करोड़ लोगों के इस देश में असंख्य लोगों के गुरु भी हैं और असंख्य के गुरुघंटाल भी। आज के दिन उनकी भी पूजा होती है।
गुरु पूर्णिमा को हमारे यहां ‘ व्यास पूर्णिमा ‘ भी कहा जाता है। जब हमारे आरंभिक शिक्षक लंकेश पंडित जी थे ,पत्रकारिता का ककहरा पढ़ाने वाले काशीनाथ चतुर्वेदी और साहित्य का सबक सिखाने वाले प्रो प्रकाश दीक्षित थे तब हम भी गुरु पूर्णिमा के दिन इन सभी का वंदन-अभिनदंन कर लेते थे। इनके चरण ही हमारे लिए कमल सदृश्य थे। अब कोई नहीं है, इसलिए हम भी गुरु पूर्णिमा के उत्स से मुक्त हो गए हैं। चूंकि हमने कोई भगवा वस्त्रधारी गुरु बनाया नहीं ,इसलिए हम आज के दिन गुरुओं से ज्यादा गुरुघंटालों पर नजर रखते हैं। नजर रखना कोई बुरी बात नहीं है। यदि आप अपनी दृष्टि से सब कुछ ओझल हो जाने देते हैं तो बुरी बात है ।
गुरु पूर्णिमा के दिन मैंने ऐसे-ऐसे गुरुओं और गुरु घंटालों को पुजते देखा है जो पूजा के लायक कम से कम मेरी नजर में तो नहीं हैं। अब गुरु पूर्णिमा के दिन को बाबा आसाराम ,राम-रहीम जैसी बिरादरी को पूजते हैं तो मुझे तकलीफ होती है। लेकिन मेरी तकलीफ मेरी अपनी है। जिसे व्यभिचारियों और पाखंडियों की पूजा से सुख मिलता है उन्हें मै उनके सुख से वंचित नहीं करना चाहता। मै नहीं चाहता की इस तरह के गुरुओं और शिष्यों कके बीच ‘ दाल-भात में मूसलचंद ‘ बना जाये।
गुरु का कोई न कोई रिश्ता गुरुता से भी होता है। हल्का आदमी किसी का गुरु नहीं हो सकता। हमारे यहां बाल्यावस्था में ही एक सूत्र रटा दिया जाता है कि – गुरूर्ब्रह्मा गुरूर्विष्णुः गुरूर्देवो महेश्वरः ।. गुरूर्साक्षात परब्रह्म तस्मै श्री गुरवे नमः ।।.हमारे जीवन पर इस सूत्र का गहरा प्रभाव है। हम किसी चौथे को गुरु मानते ही नहीं। हमारे लंकेश जी ने हमें बचपन में ही बता दिया था कि – गुरु-गोविंद दोनों खड़े ,का के लागूं पांव। बलिहारी गुरु आपनो गोविंद दियो बताय। गुरु ही गोविंद कीपहचान करता है ,इसलिए गुरु को शृद्धा से पूजिये। दुर्भाग्य से हमारे यहां गुरु भी ऐसे हुए हैं जो सबको दीक्षा नहीं देते । देते हैं तो शिष्य से गुरु-दक्षिणा में उसका अंगूठा मांग लेते हैं। ऐसे गुरुओं की आजकल भरमार है। आज के दिन मै अपने सभीमित्रों,पाठकों और शुभचिंतकों से अंगूठा मांगने वाले गुरुओं से सावधान करता रहता हूँ । मै इसे ही अपना लोकधर्म मानता हूँ।
कलियुग में गुरुओं और गुरुकुलों की कोई कमी नहीं है। कुछ राज सहायता प्राप्त गुरुकुल होते हैं कुछ सेठ सहायता प्राप्त। आजकल के गुरु धन-पशुओं के यहां शादी -विवाह में वर-वधू के साथ अपनी शैली में नृत्य करते हुए दिखाई दे सकते हैं। क्योंकि ऐसे शिष्यों के यहां गुरु -दक्षिणा में अंगूठा दखाया नहीं जाता बल्कि विदाई में झोलियाँ भर दी जातीं हैं। यदि आप आम आदमी हैं और आपका कोई गुरु है तो आपको उसकी पूजा करने उसके थान पर ही जाना पड़ेगा । वो अपनी पीठ पर अपनी पीठ लादकर आपके घर आने से रहा। आधुनिक गुरुओं के लिए तो आधुनिक शिष्य ऑस्ट्रेलिया तक चीलगाड़ी [ हवाई जहाज ] तक भेज देते हैं। तेरा तुझको अर्पण की मुद्रा में।
मेरा कोई गुरु नहीं है फिर भी मै हमेशा आब्जर्बेशन ‘करता रहता हूँ। मेरे शोध का निष्कर्ष ये है कि आजकल के गुरु अपने शिष्य से अंगूठा मांगने की हिमाकत नहीं कर सकते,क्योंकि आजकल के शिष्य खुद गुरु का अंगूठा काटकर अपनी शिष्य दक्षिणा मानकर जेब में रख लेते है। उन्हें गोविंद के दर्शन के लिए गुरु की नहीं ,गुरुघंटालों की जरूरत होती है। आजकल गुरु घंटाल पूर्व के गुरुओं से ज्यादा भारी-भरकम हो गए हैं। वे राजनीती में दखल करते है। राजनीतिक मुद्दों पार बोलते हैं ,लेकिन सबकी फीस मुकर्रर है। फ़ीस दीजिये और जिस विषय पर जो बुलवाना है , बुलवा लीजिये।
कलियुग में गुरु और चेलों के रिश्तों में आमूल-चूल परिवर्तन हो गया है। कहीं गुरु और चेले दोनों शक़्कर हो गए हैं और कहीं -कहीं गुरु गुड़ ही रह गए और चेले शक़्कर,मिश्री या शहद तक हो गए हैं। आजकल के गुरु दीक्षा देने के अलावा सब कुछ दे सकते है। आपको योगविद्या सिखा सकते हैं। स्लिम ट्रिम करने के लिए,गोरा होने के लिए दवाएं दे सकते है। आपकी कामशक्ति बढ़ा सकते हैं। आपके लिए बार्गेनिंग भी कर सकते हैं और जरूरत पड़ने पर आपके शत्रुओं के खिलाफ मोर्चा भी खोल सकते हैं। आपके लिए चुनाव में प्रचार कर सकते है। उनके लिए कुछ भी वर्जित नहीं है।
आप यकीन कीजिये कि मै अक्सर गुरुओं के गुरुत्वाकर्षण से बचने के लिए उन्हें दूर से ही प्रणाम कर लेता हूँ। उन्हें कभी अपने घर नहीं बुलाता । वे यदि भंडारा खिलाने के लिए बुलाते हैं तो हंसी-ख़ुशी चला जाता हू। आखिर आज के महंगाई के दौर में एक वक्त का निशुल्क भोजन मिलना भी एक तरह की अलप बचत है। मै तो कहता हूँ कि महंगाई की मार से बचना है तो सप्ताह में कम से कम तीन दिन मंदिरों में जाकर भंडारा या लंगर का प्रसाद ही ग्रहण करना चाहिए ।
आप मुझे गुरु नाम की संस्था का विरोधी बिलकुल मत मानिये,मै तो गुरु और गुरुकलों को दूर से ही प्रणाम करता हों। ये दोनों मिलकर देश में कांवड़ यात्रिओं की एक नई पीढ़ी तैयार कर रहे है। देश को इंजीनियरों,डाक्टरों,शिक्षकों की कम कांवड़ यात्रियों की ज्यादा जरूरत है ,क्योंकि सनातन को कंधे पर ये बेचारे ही तो धारण कर सकते हैं। ऐसे लोगों पर हेलीकाप्टर से पुष्प वर्षा करना ही सच्चा राजधर्म है। इस मामले में मै अपने गृह प्रदेश यूपी को आदर्श मानता हूँ। हमारी यूपी के मुख्यमंत्री खुद गुरु हैं। वे जानते हैं कि शिष्यों के लिए क्या उचित है और क्या अनुचित है ?
गुरु और संतों के बारे में सबकी अपनी-अपनी व्याख्या है। लेकिन हमारे कुलगुरु कबीर कहते हैं कि –
गुरू के लक्षण चार बखाना, प्रथम वेद शास्त्र को ज्ञाना।।
दुजे हरि भक्ति मन कर्म बानि, तीजे समदृष्टि करि जानी।।
चौथे वेद विधि सब कर्मा, ये चार गुरू गुण जानों मर्मा।।
अगर आपके लिए कबीर कुछ काम आ जाएँ तो इसे भी आप अपने गुरु की कृपा मान लें । कलियुग में गुरु का जटा- जूटधारी होना कोई अनिवार्य शर्त नहीं है। जटा-जूट हो तो सोने में सुहागा और न हो तो और भी बढ़िया। वैसे हम हिन्दुओं और मुसलमानों के गुरु दाढ़ियां और तिलकधारियाँ जरूर रखते है। ईसाइयों के गुरुओं की अपनी पोशाक और वेशभूषा है।आदिवासियों के गुरु आदिवासियों जैसे होते हैं। आप सभी को गुरुपर्व की बधाई। दुर्भाग्य से गुरु पूर्णिमा के दिन हमारे यहां एक शोक प्रसंग हुआ था इसलिए हम इस दिन मौन रहना ही श्रेयस्कर समझते हैं। अपने पिता को याद करते हैं। अपने दिवंगत रिश्तेदारों को याद करते हैं।
@ राकेश अचल
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