@शब्द दूत ब्यूरो (06 अप्रैल 2024)
यूपी में मदरसों को लेकर इलाहाबाद हाई कोर्ट के आदेश पर सुप्रीम कोर्ट ने अंतरिम रोक लगा दी है. हाई कोर्ट ने उत्तर प्रदेश मदरसा शिक्षा बोर्ड अधिनियम 2004 को ‘असंवैधानिक’ और धर्मनिरपेक्षता के सिद्धांत का उल्लंघन करने वाला करार दिया गया था. अब सुप्रीम कोर्ट के इस फैसले से करीब 17 लाख मदरसा छात्रों को राहत मिलेगी. चीफ जस्टिस डीवाई चंद्रचूड़ की अगुवाई वाली तीन सदस्यों वाली पीठ ने हाई कोर्ट के आदेश के खिलाफ दायर याचिकाओं में उठाए गए मुद्दों पर बारीकी से विचार करने योग्य पाया. कोर्ट ने इस संबंध में यूपी सरकार और अन्य को नोटिस भी जारी किया है.
पूरे उत्तर प्रदेश में इस वक्त लगभग 26 हजार मदरसे चल रहे हैं. इनमें से 12,800 मदरसों ने रजिस्ट्रेशन के बाद कभी रिन्यूवल नहीं कराया. 8500 मदरसे ऐसे हैं जिन्होंने कभी रजिस्ट्रेशन ही नहीं कराया जबकि 4600 मदरसे रजिस्टर्ड हैं और अपने से ही खर्च करते हैं. इसके अलावा 598 मदरसे सरकारी मदद से चलते हैं यानी जिन्हें पूरा फंड सरकार की तरफ से मुहैया कराया जाता रहा है. हालांकि इलाहाबाद हाईकोर्ट के फैसले के बाद इस पर रोक लग गई थी, लेकिन सर्वोच्च न्यायालय के आदेश के बाद ये आर्थिक मदद आगे भी जारी रहेगी.
यूपी में 26 हजार मदरसे
यूपी में लगभग 26 हज़ार मदरसे चल रहे हैं. इनमें 12,800 मदरसों ने रजिस्ट्रेशन के बाद कभी रिन्यूवल नहीं कराया. 8500 मदरसे ऐसे हैं, जिन्होंने कभी रजिस्ट्रेशन ही नहीं कराया. 4600 मदरसे रजिस्टर्ड हैं और अपने से खर्च करते हैं. इसके अलावा 598 मदरसे सरकारी मदद से चलते हैं, यानी जिन्हें पूरा फंड सरकार की तरफ से मुहैया कराया जाता है. यूपी में कुल 26 हजार मदरसे है पर इनमें से सिर्फ 598 ही सरकारी मदरसे है.
यूपी मदरसा बोर्ड कानून है क्या ?
अब हम आपको ये भी बताते हैं कि आखिर ये यूपी मदरसा बोर्ड कानून क्या है? दरअसल वर्ष 2004 में तत्कालीन मुलायम सरकार में ये कानून बनाया गया था. इसी कानून के तहत यूपी मदरसा शिक्षा बोर्ड का गठन किया गया. इसका मकसद था मदरसों की शिक्षा व्यवस्था को बेहतर करना है. इस कानून के तहत मदरसों को बोर्ड से मान्यता प्राप्त करने के लिए कुछ न्यूनतम मानकों को पूरा करना आवश्यक था. जिसके बाद बोर्ड मदरसों के पाठ्यक्रम, शिक्षण सामग्री और शिक्षकों के प्रशिक्षण के लिए भी दिशानिर्देश भी देता था.
यूपी बोर्ड ऑफ मदरसा एजुकेशन एक्ट-2004 उत्तर प्रदेश सरकार द्वारा पारित एक कानून था. जो राज्य में मदरसों की शिक्षा व्यवस्था को बेहतर बनाने के लिए बनाया गया था. इस कानून के तहत मदरसों को बोर्ड से मान्यता प्राप्त करने के लिए कुछ न्यूनतम मानकों को पूरा करना आवश्यक था. बोर्ड मदरसों के पाठ्यक्रम, शिक्षण सामग्री और शिक्षकों के प्रशिक्षण के लिए भी दिशा निर्देश देता था.
हाई कोर्ट ने एक्ट को ही रद्द कर दिया था
इस मामले में याचिकाकर्ता की ओर से ये दलील दी गई थी कि जैन, सिख, ईसाई जैसे मजहबों से संबंधित सभी शैक्षिक संस्थानों को शिक्षा मंत्रालय के अंतर्गत संचालित किया जाता है, जबकि मदरसों को अल्पसंख्यक विभाग के तहत. इससे शिक्षा विशेषज्ञों और शिक्षा नीतियों के लाभ से मदरसे के छात्र वंचित रह जाते हैं. इस पर सुनवाई करते हुए ही इलाहाबाद हाईकोर्ट ने यूपी मदरसा एक्ट रद्द किया था लेकिन आज इस फैसले पर देश की सबसे बड़ी अदालत ने रोक लगा दी है.
2019 में हाई कोर्ट ने मदरसा बोर्ड के कामकाज और संरचना से संबंधित कुछ सवालों को बड़ी पीठ के पास भेजा था. बड़ी पीठ को भेजे गए सवाल में पूछा गया था कि क्या बोर्ड का उद्देश्य केवल धार्मिक शिक्षा प्रदान करना है. भारत में धर्मनिरपेक्ष संविधान के साथ क्या किसी विशेष धर्म के लोगों को किसी भी धर्म से संबंधित शिक्षा के लिए बोर्ड में नियुक्त/नामांकित किया जा सकता है?
अल्पसंख्यक कल्याण मंत्रालय के तहत कार्य करता है बोर्ड
अधिनियम में बोर्ड को राज्य के अल्पसंख्यक कल्याण मंत्रालय के तहत काम करने का भी प्रावधान है इसलिए, यह सवाल उठता है कि क्या मदरसा शिक्षा को अल्पसंख्यक कल्याण विभाग के तहत चलाना सही है, जबकि जैन, सिख, ईसाई आदि जैसे अन्य अल्पसंख्यक समुदायों से संबंधित सभी अन्य शिक्षा संस्थान शिक्षा मंत्रालय के तहत चलाए जा रहे हैं.
याचिका में इस तरफ भी ध्यान दिलाया गया था कि जैन, सिख ईसाई इत्यादि मजहबों से संबंधित सभी शैक्षिक संस्थानों को शिक्षा मंत्रालय के अंतर्गत संचालित किया जाता है, जबकि मदरसों को अल्पसंख्यक विभाग के तहत. इससे शिक्षा विशेषज्ञों और शिक्षा नीतियों के लाभ से मदरसे के छात्र वंचित रह जाते हैं.
किसने दायर की थी हाई कोर्ट में याचिका?
अंशुमान सिंह राठौड़ नामक शख्स ने इस संबंध में याचिका दायर की थी. उन्होंने इस एक्ट की कानूनी वैधता को चुनौती दी थी. इसके साथ-साथ उन्होंने निःशुल्क और अनिवार्य बाल शिक्षा का अधिकार संशोधन अधिनियम, 2012 के कुछ प्रावधानों पर भी आपत्ति जताई थी. इससे पहले भी इलाहाबाद हाईकोर्ट ने केंद्र व राज्य सरकारों से पूछा था कि मदरसा बोर्ड को शिक्षा विभाग की जगह अल्पसंख्यक विभाग द्वारा क्यों संचालित किया जा रहा है.
इसके साथ ही इलाहाबाद हाईकोर्ट ने शैक्षणिक संस्थानों पर पारदर्शिता पर भी जोर दिया. याचिका में पूछा गया था कि क्या मदरसों का उद्देश्य शिक्षा देना है या फिर मजहबी शिक्षा देना? साथ ही सवाल किया गया था कि जब संविधान सेक्युलर है तो फिर क्या सिर्फ एक खास मजहब के व्यक्ति को ही शिक्षा बोर्ड में नियुक्त किया जा सकता है? सुझाव दिया गया था कि शिक्षा से संबंधित बोर्ड में विद्वान लोगों की नियुक्ति अलग-अलग क्षेत्रों में उनकी दक्षता को देखते हुए की जानी चाहिए, बिना मजहब देखे हुए.