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जनादेश के लिए मतदाता की ‘अग्निपरीक्षा@राकेश अचल

राकेश अचल,
वरिष्ठ पत्रकार जाने माने आलोचक

मध्यप्रदेश के मतदाताओं के लिए 17 नंबवर का दिन अपने हाथ से अपना भाग्य लिखने का दिन है। दुसरे तीन प्रदेश के मतदाताओं के लिए भी यही बात लागू होती है।मध्य प्रदेश,राजस्थान,छत्तीसगढ़ और तेलंगाना में विधानसभा चुनाव के लिए अब रणभूमि में सारे योद्धा उतर चुके है । जिन्हें मैदान से हटना था उन्होंने मैदान छोड़ दिया है और जो मान-मनोवल के बाद भी नहीं माने वे भी अपनी प्रत्यंचायें तानकर अपने प्रतिद्वंदियों के सामने डटे हुए हैं। चुनावी प्रक्रिया के इस दौर के बाद अब असली परीक्षा मतदाताओं की शुरू होती है। मतदाताओं को अपनी पसंद का सेवक चुनने के लिए जितनी मेहनत-मशक्क्त करना पड़ती है उसका अनुमान लगना आसान नहीं है।

मध्यप्रदेश में प्रत्याशियों की भीड़ में जाने -पहचाने चेहरों के साथ ही एकदम नए-नवेले चेहरे भी हैं। कांग्रेस और भाजपा के अलावा इस बार चुनाव मैदान में बसपा और सपा के अलावा आम आदमी पार्टी के प्रत्याशी हैं और जेडीयू के भी और गौड़वाना गणतंत्र पार्टी के भी ।राजस्थान,छग और तेलंगाना में भी कमोवेश यही परिदृश्य है। मतदाताओं को देखना है कि कौन से प्रत्याशी पर दांव लगाना चाहिए ? तीसरी शक्ति कहे जाने वाले अधिकाँश दलों के पास या तो बिकाऊ प्रत्याशी हैं या दिखाऊ प्रत्याशी। बसपा और सपा के अधिकांश प्रत्याशी वैचारिक प्रतिबद्धता के मामले में खोखले या बेपेंदी के है। उन्हें उनके पुराने दलों से टिकिट नहीं मिला तो दूसरे दलों से टिकिट ले आये,लेकिन चुनाव मैदान नहीं छोड़ा। मप्र में तो ऐसे लोगों में 81 साल के पूर्व विधायक रसाल सिंह भी हैं और हाल ही में पटवारी घोटाले में आरोपी बने संजीव सिंह भी। पूर्व मंत्री रुस्तम सिंह के बेटे राकेश सिंह भी हैं और कल तक कांग्रेसी रहे केदार सिंह कंसाना। ऐसे प्रत्याशियों के नाम और क्षेत्र अलग-अलग हो सकते हैं किन्तु चरित्र एक जैसा है।

एमपी केवल अपने पर्यटन क्षेत्रों और अभ्यारण्यों की वजह से ही अजब -गजब नहीं है बल्कि सियासत की वजह से भी अजब-गजब है । यहां की सियासत 67 साल भी बहुत ज्यादा नहीं बदली । यहां सीधा रण होता आया है। बूढी कांग्रेस और लगातार बनते-बिगड़ते विपक्ष के बीच। तीसरे दलों के लिए पिछले छह दशक में यहां कोई जगह बनी ही नहीं। सत्ता के समीकरण बनाने-बिगाड़ने में भी तीसरी शक्ति के रूप में पहचान बनाने वाले राजनितिक दल भी बहुत ज्यादा कुछ नहीं कर पाए और शायद इस बार भी वे कोई करतब नहीं कर पाएंगे।करतब जब भी हुआ है तब बगावत की वजह से हुआ ,चाहे वो बात 1967 की हो या 2020 की।

केंद्र में सत्तारूढ़ होने के साथ ही एमपी में भी सत्तारूढ़ भाजपा के लिए इस बार 2018 के विधानसभा के चुनावों से ज्यादा कठिन लड़ाई है।मतदाताओं के लिए भी लड़ाई उतनी ही कठिन है । मतदाता 2018 में भाजपा को जिन आधारों पर ख़ारिज कर चुका था ,वे आधार पांच साल बाद भी जस के तस हैं। ऐसे में 2018 के बदलाव के लिए आये जनादर्श का कोई हासिल ही नहीं हुआ । अब मतदाता या तो दोबारा अपने जनादेश केो दोहाराये या फिर ‘ कोऊ नृप होय ,हमें का हानि ‘ की तर्ज पर सब कुछ भाग्य भरोसे छोड़ दे । मतदाता के सामने राजनीति की भाषा में कहें तो एक तरफ सांपनाथ हैं और दूसरी तरफ नागनाथ। चयन इन्हीं नाथों में से किया जाना है। कौन कितना उपयोगी और कौन कितना हानिकारक होगा इसकी जांच केवल अनुभव के आधार पर की जा सकती है । इसके लिए अभी कोई उपकरण ईजाद नहीं हुआ है । इसलिए ये काम कठिन काम है ।

विधानसभा चुनाव चूंकि दीपावली के ठीक बाद हो रहे है इसलिए दोनों प्रमुख राजनीतिक प्रतिद्वंदियों के प्रत्याशियों के हाथों में फ्रीबीज यानि उपहारों की रेवड़ियां है। घोषणाएं है। वचनपत्र हैं। सब एक-दूसरे से ज्यादा लुभावने हैं। लेकिन लोकतंत्र की रक्षा और सही निर्णय के लिए मतदाताओं को इस फ्रीबीज की मीठी गोली से परहेज कर ये तय करना होगा कि सामाजिक तना-बाना किसके हाथ ज्यादा सुरक्षित है ? कौन है जो लोकतंत्र को राजतंत्र में तब्दील होने से रोक सकता है ? दोनों प्रमुख राजनीतिक दल बीते छह दशकों से जिस तरह की राजनीति करते आ रहे हैं उसमें पुराने सामंत भी हैं और नए सामंत भी । वर्तमान मुख्यमंत्री हों या पूर्व मुख्यमंत्री सभी की आय पांच साल में बढ़ी है । अगर किसी की आय नहीं बढ़ी है तो वो है केवल मतदाता । मतदाता को पता करना होगा कि उसकी आय पर आखिर डाका किसने और कितना डाला ? क्यों नेताओं की आय बढ़ी और जनता की नहीं ?

आज के लोकतंत्र में चुनाव लड़ने का संवैधानिक हक भले ही साधारण आदमी को भी है किन्तु वो चुनाव लड़ नहीं सकता,क्योंकि चुनावों को जानबूझकर इतना मंहगा कर दिया गया है कि जन साधारण इस खेल से दूर हो जाये। अब चुनाव लड़ने वाले के पास अकूत धन होना चाहिए। ये मुमकिन नहीं है।क्योंकि ये केवल मंत्रियों,विधायकों और नौकरशाहों के पास हो सकता है । वे एक-दो नहीं दस हजार करोड़ तक के लेनदेन करने की बातें कर सकते है । अनेक वीडियो इस बात की गवाही दे रहे हैं की उनके पूर्व में चुने गए तमाम प्रतिनिधि चोर ही नहीं डकैत भी हैं। चंबल वाले तो कनाडा तक हाथ मारते दिखाई दे रहे हैं। ईडी और सीबीआई इनका कुछ नहीं बिगाड़ सकती,क्योंकि जब तक साहब हैअन ,तब तक सब मुमकिन है। ऐसे चोरों-डकैतों,बेईमानों और अपराधियों को चुनाव मैदान से खदेड़ने का सही मौक़ा विधानसभा के चुनाव है। सही फैसला करें और चुनावों में धनबल,बाहुबल को हतोत्साहित करें तभी मध्यप्रदेश का कल्याण सम्भव है,अन्यथा नहीं।मत भूलिए की आपका वोट सचमुच अनमोल है। मैंने पिछले चुनाव में एक सलाह दी थी की -चुनें उन्हें जो साथ निभाएं,हर सुख-दुःख में दौड़े आएं।’ मेरा मशविरा आज भी यही है। अब मर्जी है आपकी ,क्योंकि वोट है आपका।
@ राकेश अचल
achalrakesh1959@gmail.com

 

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