
वरिष्ठ पत्रकार जाने माने आलोचक
देश में दशहरा पारम्परिक रूप से मनाया जाएगा लेकिन जिन पांच राज्यों में सियासी लंका को जीतने के लिए घमासान हो रहा है वहां दिनों -दिन रोचकता बढ़ती जा रही है। एक तरफ रथी हैं और दूसरी तरफ पैदल सेना । पांच राज्यों में होने वाले विधानसभा चुनाव से जुडी ये कहानी अपने आप त्रेता के राम-रावण युद्ध का रूप ले रही है। मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान ने तो कह ही दिया है कि वे कांग्रेस की लंका को जलाकर ही दम लेंगे। जाहिर है कि चौहान को आज भी कांग्रेस के पास सोने की लंका नजर आती है जबकि कांग्रेस तीन साल पहले ही बिभीषण ज्योतिरादित्य सिंधिया की वजह से अपनी लंका अपने हाथों ध्वस्त कर चुकी है।
खरीदे गए जनादेश को विधिक रूप देने के लिए विधानसभा चुनाव लड़ रही सत्तारूढ़ भाजपा ने पूरे प्रदेश में मानव रहित प्रचार रथों की फ़ौज उतार दी है। ये रथ भाजपा सरकार की उपलब्धियों और योजनाओं के गीत और प्रधानमंत्री श्री नरेंद्र मोदी जी के भाषण मतदाताओं को सुनाएंगे। भाजपा को इस तकनीक सहारा मजबूरी में लेना पड़ा है क्योंकि आज उसके पास ऐसे नेताओं और देवदुर्लभ कार्यकर्ताओं की भारी कमी है जिनकी बात मतदाता सुन सकें। भाजपा के तमाम प्रचारक नीरस और चुंबकत्वहीन हो चुके हैं एक ज्योतिरादित्य सिंधिया को छोड़कर। वे पूरी भाजपा में भीड़ बटोरने वाले इकलौते नेता बचे हैं।
कार्यकर्ताओं के असंतोष से जूझ रही भाजपा के पास कांग्रेस की लंका जलाने के लिए 81 साल के जामवंत नागेंद्र सिंह से लेकर 73 साल की माया मेम तो हैं लेकिन युवा नेताओं और सेनापतियों का घोर अभाव है । अधिकाँश इस संग्राम में शामिल होने का मौक़ा न मिलने की वजह से नाराज होकर हाथी पर सवार हो गए हैं या उन्होंने भाजपा को ही साफ़ करने के लिए केजरीवाल के दल की झाड़ू थाम ली है। भाजपा की अयोध्या ग्वालियर से लेकर उज्जयनी तक यही हाल है। भाजपा के बागी सेनापति अब दूसरे दलों की सेनाओं के सेनापति या सिपाहसालार बन गए है। उन्हें कांग्रेस से ज्यादा भाजपा से हिसाब बराबर करना है।
भाजपा की नाव खे रहे शिवराज सिंह को कांग्रेस की लंका ढहाने के लिए खुद हनुमान बनने के लिए मजबूर होना पड़ा है । कांग्रेस ने तो एक फ़िल्मी हनुमान विक्रम मस्ताल को शिवराज सिंह के पीछे लगा दिया है। यानि मध्यप्रदेश की सियासत में राजनीतिक दलों के बीच नहीं सुरों और असुरों के बीएच संग्राम हो रहा है। मतदाताओं को तय करना है कि वे सुर किसे मानते हैं और असुर किसे ? कांग्रेस में भी भाजपा की ही तरह सत्ता संग्राम को लेकर बगावत है और अच्छी-खासी बगावत है लेकिन इस बगावत का लाभ भाजपा को तब मिलता जब ये तमाम कांग्रेसी बागी भाजपा के दलदल में शामिल होकर कमल की खेती कर रहे होते। कांग्रेस के बागी भी हाथी और झाड़ू के सहारे हैं। भाजपा तो अपने ही लोगों को टिकिट नहीं दे पायी,कांग्रेस के बागियों को कहाँ से टिकिट देती ?
भाजपा की लंका जलाने के लिए हजारों किमी की पदयात्रा कर वानर-भालुओं की सेना जुटा रही कांग्रेस ने फिलहाल हिमाचल और कर्नाटक में तो मोर्चा फतह कर लिया लेकिन वे असल दंडकारण्य मध्य्प्रदेश में भी विजयश्री हासिल कर सकेंगे ,ये कहना आसान नहीं है । यहां घमासन होगा और खूब होगा। कौन ,किसका शिखर ढहायेगा ये देखना सुरुचिपूर्ण होगा। कांग्रेस के पास रथ नहीं है । उसे ये जंग अपनी पैदल सेना के सहारे जीतना है। मध्यप्रदेश में भी और मध्यप्रदेश के लघु भ्राता छत्तीसगढ़ में भी। इन दोनों प्रांतों को जीतकर ही कांग्रेस भाजपा को खेत कर सकेगी। राजस्थान की मरुभूमि में भाजपा मध्यप्रदेश के उलट विपक्ष में है ,किन्तु यहां भी उसके पास रथों की कमी नहीं है। रथों की कमी तो तेलंगाना में भी नहीं है लेकिन रथ चलने के लिए कुशल साहनी भाजपा के पास भी नहीं हैं।
भाजपा मिजोरम की बात कर ही नहीं रही। वहां लगता है कि न कांग्रेस की लंका है और न भाजपा की अयोध्या। आखिर जीता किसे जाये ? मिजोरम में रथ चल नहीं सकता । पहाड़ी इलाका है। इस राज्य में कांग्रेस हो या भाजपा दोनों को पैदल सेनाओं के साथ ही उतरना पडेगा,हार-जीत के कयास लगना तो अभी दूर की कौड़ी है। दरअसल मिजोरम के बगल में मणिपुर है जो पिछले छह माह से धड़क रहा है और इसके लिए रथारूढ़ भाजपा को ही जिम्मेदार माना जाता है। कांग्रेस के साहनी राहुल गांधी तो हिम्मत कर मणिपुर हो भी आये लेकिन भाजपा के किसी नेता की हिम्मत जब मणिपुर जाने की नहीं पड़ी तो वे मिजोरम कौन सा मुंह लेकर जायेंगे वोट मांगने ?
मध्य्प्रदेश में सोने की लंका ढ़हने के लिए भाजपा को कम से कम 120 मोर्चे जीतने होंगे और कांग्रेसको भी अपनी लंका बचने के लिए इतने ही मोर्चों पर भाजपा के तम्बू उखाड़ना होंंगे । पिछले संघर्ष में भाजपा लक्ष्य से पहले ही हार मानकर बैठ गयी थी । मध्य प्रदेश के अलावा छत्तीसगढ़ ,राजस्थान में तो भाजपा के लिए मोर्चा और ज्यादा दुरूह है ,क्योंकि इन दोनों राज्यों में सत्ता कांग्रेस के पास है । तेलंगाना में भी कमोवेश यही दशा है । वहां भाजपा के लिए कोई ख़ास गुंजाइश नहीं है । मिजोरम में तो कोई रमना ही कहाँ चाहता है ? रणभेरियां बज रहीं है। दोनों पक्षों की सेनाएं अपने आपको निर्णायक युद्ध के लिए तैयार कर रहीं हैं। हम और आप दर्शक दीर्घा में बैठे तमाशा देख रहे है।
@ राकेश अचल
achalrakesh1959@gmail.com