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द्रोपदी पर दांव @अचर्चित और अविवादित नाम एनडीए की विवशता , वरिष्ठ पत्रकार राकेश अचल का विश्लेषण

राकेश अचल, लेखक देश के जाने-माने पत्रकार और चिंतक हैं, कई राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय पत्र पत्रिकाओं में इनके आलेख प्रकाशित होते हैं।

बिलकुल अन्यथा न लीजिये. द्वापर की तरह ही इस बार कलियुग में एक बार फिर द्रोपदी दांव पर है लेकिन द्रोपदी को दांव पर राष्ट्रपति पद के लिए लगाया गया है .आज की द्रोपदी कल की द्रोपदी से सर्वथा भिन्न है. समर्थ है,संघर्षशील है .भारत के पन्द्रहवें राष्ट्रपति पद के लिए भाजपा ने एक सर्वथा अचर्चित और अविवादित नाम सामने लेकर सबको चौंका दिया है. मैंने बहुत पहले इस बारे में लिखा भी था. भाजपा ने ये काम इतने गोपनीय ढंग से किया कि पार्टी की प्रत्याशी श्रीमती द्रोपदी मुर्मू को भी इसकी भनक तक नहीं लगी.उन्हें भी टीवी से अपने प्रत्याशी बनाये जाने की सूचना मिली .द्रोपदी भाजपा की दूसरी ऐसी प्रत्याशी हैं जो राजभवन से राष्ट्रपति भवन जाएँगी.निवर्तमान राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद भी राज्यपाल से राष्ट्रपति बनाये गए थे .

द्रोपदी मुर्मू की उम्मीदवारी ही केवल चौंकाने वाली है,क्योंकि उनके नाम की चर्चा कहीं थी ही नहीं .लेकिन भाजपा के चाणक्यों ने बड़ी सूझ-बूझ से मौजूदा हालात में मुर्मू को अपने राष्ट्रपति प्रत्याशी के रूप में बचाकर रखा था .मुर्मू पर भाजपा ने न कोई कृपा की है और न उपकार.दरअसल ये भाजपा की विवशता और आवश्यकता दोनों थी कि वो कोई ऐसा प्रत्याशी लेकर सामने आये जो न विवादित हो,न चर्चित हो और ऐसे वर्ग से हो जिसे अभी तक हाशिये पर रखा गया हो.मुर्मू को प्रत्याशी बनाये जाने के पीछे ओडिशा का समर्थन हासिल करना भी था ,क्योंकि भाजपा के पास बिहार की जेडीयू तो है लेकिन ओडिशा की बीजद नहीं .अब नैतिकतावश बीजेडी को भाजपा प्रत्याशी का साथ देना पडेगा .

सत्तारूढ़ होने के कारण भाजपा को अपना प्रत्याशी जिताने के लिए हालाँकि बहुत ज्यादा उठापटक नहीं करना पड़ेगी लेकिन निश्चिन्त होकर भी वो ये चुनाव नहीं लड़ सकती . देश के मौजूदा राजनीतिक परिदृष्य में भाजपा के खिलाफ असंतोष है .इसलिए उसने जहाँ एक और ओडिशा को साधने के लिए मुर्मू को प्रत्याशी बनाया वहीं महाराष्ट्र में उद्धव ठाकरे की सरकार को अपदस्थ करने के लिए भी अपनी रणनीति पर अमल शुरू कर दिया .इसमें नया कुछ भी नहीं है. राजनीति है और राजनीति में साम,दाम,दंड और भेद चलता ही है .

विपक्ष की और से बंगाल की मुख्यमंत्री सुश्री ममता बनर्जी ने राष्ट्रपति पद के लिए साझा प्रत्याशी खोजने की कोशिश शुरू की थी लेकिन उन्हें अपेक्षित कामयाबी नहीं मिली .एनसीपी के शरद बाबू और महात्मा गाँधी के पौत्र ने अन्यान्य कारणों से उम्मीदवार बनने से इंकार कर दिया.अब उम्मीद है कि पूर्व केंद्रीय मंत्री यशवंत सिन्हा इस सांकेतिक लड़ाई के लिए शायद विपक्ष के उम्मीदवार बन जाएँ. वे भाजपा के बाग़ी हैं और ख़ास तौर पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की कार्यप्रणाली के विरोधी और आलोचक भी. ये बात अलग है कि उनका अपना बेटा मोदी मंत्रिमंडल का हिस्सा है .

भाजपा को सत्ता में आने के बाद दूसरी बार देश का राष्ट्रपति अपने मन का चुनने का मौक़ा मिल रहा है. भाजपा जब सत्ता में आयी थी तब कांग्रेस के प्रणब मुखर्जी राष्ट्रपति थे. मुखर्जी ने बाद में भाजपा से तालमेल बैठा लिया था लेकिन उन्हें दूसरा मौक़ा नहीं मिला. किसी भी राष्ट्रपति को दूसरा मौक़ा मुश्किल से मिलता है .भारत के पहले राष्ट्रपति डॉ राजेंद्र प्रसाद ही एक अपवाद हैं जो दो बार देश के राष्ट्रपति चुने गए .लेकिन वो जमाना अलग था .आज जमाना अलग है .

कांग्रेस के राज में चुने गए 13 राष्ट्रपति व्यक्तित्व,शैक्षणिक योग्यता और दीगर सभी मामलों में एक से बढ़कर एक रहे .स्वतंत्रता संग्राम सेनानी होने का अनुभव ज्यादातर के पास था .कोई केंद्र में मंत्री रहा,कोई सुप्रीम कोर्ट में मुख्य न्यायाधीश तो कोई कुलपति रहा,कोई विदेश में राजदूत रहा,कोई मुख्यमंत्री रहा .भाजपा के राज्य में चुने गए डॉ एपीजे अब्दुल कलाम विख्यात वैज्ञानिक रहे और रामनाथ कोविद राज्यपाल थे .मुर्मू भी राज्यपाल हैं ,वे अपने राज्य में मंत्री भी रहीं हैं .भाजपा जो अब कर रही है वो कांग्रेस बहुत पहले कर चुकी है. कांग्रेस ने प्रतिभा पाटिल को पहला महिला राष्ट्रपति बनाया.कांग्रेस दलित,अल्पसंख्यक को इस सर्वोच्च पद पर बैठा चुकी है.आदिवासी को भाजपा लेकर आयी है .
राष्ट्रपति पद को लेकर आज के कर्कश राजनीतिक माहौल में निर्वाध चुनाव करा पाना आसान काम नहीं है. भाजपा ने राजनीति में सौजन्य का अध्याय हमेशा के लिए बंद कर सर्वसम्मति की गुंजाइश छोड़ी ही नहीं. भाजपा वाले अधिकाँश मामलों में एकला चलते हैं. विपक्ष को वे कुछ समझते नहीं .वे तो विपक्ष के समूल नष्ट होने की कामना करने वाले लोग हैं .लेकिन मुझे लगता है कि मुर्मू को निर्विरोध चुना जाना चाहिए इससे देश के बाहर भारत की छवि बनेगी .भाजपा इसके लिए अब भी पहल कर सकती है और न भी करे तो विपक्ष को चाहिए कि वो ये चुनाव न लड़े.राष्ट्रपति पद कि लिए विपक्ष कि पास न सम्पूर्ण एकता है और न संख्या बल इसलिए चुनाव लड़ने का कोई औचित्य नहीं है .

भाजपा के मुंह में लगाम डालने का एक मात्र अवसर आम चुनाव है. विपक्ष को बजाय राष्ट्र्पति चुनाव के बजाय आम चुनाव की तैयारी करना चाहिए .वैसे भी राष्ट्रपति कौन सा भारत की राजनीति को प्रभवित करने वाले होते हैं. ज्ञानी जेल सिंह की बात छोड़ दीजिये. भूल जाइये नीलम संजीव रेड्डी को .देश को अब उपलब्ध महानुभावों में से ही अपने लिए श्रेष्ठ का चुनाव करना है .अब स्वतंत्रता आंदोलन में तपे नेताओं की पीढ़ी समाप्त हो चुकी है .अब जो सामने हैं वे ही सब कुछ हैं .
भाजपा आने वाले दिनों में महाराष्ट्र सरकार लपकने कि बाद राष्ट्रपति चुनाव कि लिए दिखावे का अभियान शुरू करेगी .महाराष्ट्र में ठाकरे ने शिवसेना और एनसीपी तथा कांग्रेस की मदद से उसके सामने से परोसी हुई थाली खींच ली थी .अब गेंद उसके पाले में हैं .मुझे लगता है कि भाजपा के पास इतनी कूबत है कि वो बागी विधायकों की कीमत अदाकार महाराष्ट्र में अपनी सरकार बना ले. मध्यप्रदेश में भाजपा इसी तरीके से सत्ता में आ चुकी है .भाजपा जहाँ जनादेश से सत्ता में नहीं आती वहां धनादेश का इस्तेमाल करती है .
@ राकेश अचल

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