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” रामधनी से लागी प्रीत खायीं गकरियाँ गाए गीत घर को चले चैंतुआ मीत “क्या फिर लौटेंगे वो दिन?एक खास परंपरा

© डा.रामशंकर भारती

” रामधनी से लागी प्रीत
खायीं गकरियाँ गाए गीत
घर को चले चैंतुआ मीत ”
लोकरस से भरे पुरुषार्थ के हृदय स्पर्शी बोल हैं ये। वह पुरुषार्थ जो जंगल में मंगल की स्थापना करता है।श्रम की उपासना करता है। ये जो पंक्तियाँ हैं इनमें जीवन के अनेक सूत्र बिखरे पड़े हैं। इनमें पूरी की पूरी हमारी ग्राम्या संस्कृति मुखर हुई है। लोकजीवन की जीवंत चेतना का नाद जी भर के गुंजायमान हुआ है। अन्नपूर्णा देवी की कृपा से चारों ओर फसलों से पके हुए खेत लहलहा रहे हैं। नये साल का सगुन हो गया है। होली बीत गयी है। नवान्न के स्वागत के लिए चैतुआ अपना घर-वार छोड़कर गाँव-गाँव आ रहे हैं। हमारे गाँव क्योलारी में भी चैंतुआओं ने भी बड़े – बड़े कास्तकारों के बाडो़ में आकर डेरे जमा लिए हैं।

चैंतुआ याने चैत के महीने में फसलों की कटाई करने वाले एक प्रकार के प्रवासी मजदूर होते हैं जो पथरीले इलाकों से आते हैं जहाँ रबी की फसल पैदा ही नहीं होती हैं। ये चैंतुआ बड़े और खेतीसंपन्न गाँवों में अस्थाई रूप से नुनाई – कटाई करने आ जाते हैं। कटाई समाप्त होते ही ये अपना मेहनताना अनाज के रूप में ले जाते हैं। उसी से उनके सालभर का खानेपीने का इंतजाम हो जाता है।

चैत माह की शीतल चाँदनी रात है।भोर होने में अभी एक पहर बाकी है। चैंतुआ अपनी – अपनी पोटलियों लेकर खेतों की ओर कटाई करने निकल पड़े हैं। दोपहर के ठेठ गरम घाम से बचने के लिए चैंतुआ अपने डेरों से कटाई के लिए खेतों पर जाने की तैयारी में आधी रात से लग जाते है।पकी हुई गेहूँ ,अलसी ,चना आदि की फसलें अपना शीश कटवाने के लिए चैंतुओं की वाट जोह रहीं हैं। यह अद्भुत समर्पण है जहाँ खेतों में अपना – अपना शीश उतरवाने की होड़ लगी है। एक पके हुए खेत को देखकर दूसरा खेत भी पकने लगा है। फसलें काटते हुए जब ये नुनइया – कटैया झुण्ड के झुण्ड में सुरीले स्वरों में चैती और रमटेरा गाते हुए हँसियों से गेहूँ के पौधे काटते हुए ताल देते थे। वह दृश्य देखे हुए सालों – साल गुजर चुके हैं। मुझे याद है चैत काटने के लिए अनेक चैतुआ मेरे घर पर भी आते थे । जो उस जमाने में जानवरों वाले बाड़े में महीनों रुकते थे।आधी रात से ही जागकर खाना बनाने की खटपट शुरु हो जाती थी ।खाना क्या , बस चार – चार मोटी – मोटी हथपबू रोटियाँ ,
,पटनावाली लाल मिर्च और प्याज की गौंदा भर चटनी बनाकर साथ ले जाते थे। भिनसारे से कटाई शुरु होती जो दोपहर तक चलती । फिर भोजन की पोटली खोली जाती ।ऐसी सौंधी महक खाने से आती कि व्यंजन भी लजा जाएँ।सब के सब एक साथ खाते ,एक साथ गाते और एक साथ काम पर जुट जाते। समरसता और सामंजस्य का अनोखा संसार देखते ही बनता था। जो कटाई करने में असमर्थ होते वो वहीं सिला बीनते। वहीं कूटकाट कर अनाज बना लेते।फिर उसी को जोड़कर घर में रखते। जरूरी सामान लेने के लिए दादी मोदी की दुकान पर वही सिला बेंच देते।रात को जब वापस अपने डेरों पर लौटते तो गाँव में मेला जैसी चहल-पहल हो जाती। कहीं सिला कूटने की आवाजें, कहीं होरा भूँजने का धुँआ तो कहीं हँसिया पर धार देने की रेती की किर्र – किर्र सुनायी देती। गप्पें होतीं , कहानी – किस्से
होते । देर तक बच्चों की चिल्लपौं होती रहती। बखरी के बाहर बने ईंटों के चूल्हों में देर तक आग जलती रहती। उसी में बैंगन, मिथौरी , निगौना आदि की सब्जी बनती तो कभी आम का भरता भुनता। अगर कुछ नहीं है तो नमकीन पनपतू रोटियांँ मिर्च , टेंटी , अमिया के अचार से ही आनंद से खायीं जातीं।अगल- बगल के घरों से भी दाल , तरकारी माँग कर काम चलाया जाता था। सब पेट भर खाते थे और हाड़तोड़ मेहनत करते। गाँव के जमींदार व खेतों के मालिक भी उनके सुख-दुख की पूरी चिंता करते थे। इन चैतुओं में बूढ़े- बच्चे – जवान -औरतें तथा लड़कियाँ भी होती थीं। मजाल है कहीं किसी के साथ कोई आदमी बदतमीजी कर सके। गाँव का चरित्र पक्का था। खरे सोने की तरह…

आज यह सब सोचता हूँ तो सब बातें सपने- सी लगती हैं। गाँव में अब शहर घुस आया है। संसाधन तो बड़े हैं पर सोच छोटी हुई है। संपन्नता आयी है तो तिकड़में भी पैदा हो रहीं है। गाँव में अब कोई चैतुआ नहीं आता। अब हार्वेस्टर व थिरे्सर से फसलों की मड़ाई होती है। पैदावार भी बढ़ी है तो खर्चे भी कम नहीं हैं।ऊपर से बेमौसम बरसात।आँधी-ओलों की मार ने किसान की कमर तोड़ के रख दी है। गाँव में एक अजीब खालीपन है। जनसंख्या तो बढ़ रही है। मगर जमीनें सिकुड़ रहीं हैं। बेरोजगारी का शैतान जिंदा हो गया है। लोग गाँव से पलायन करने को मजबूर हैं।

बहुत कुछ समय के साथ बदलता रहता है। सो गाँव भी बदला है। ढेर सारे बदलाव गाँव में आए हैं । इन सबके बावजूद गाँव में आज भी सामूहिकता का भाव है । सहयोग की भावना है। गाँव में कोई भूखा नहीं सोता। गाँव की अन्नपूर्णा सब का पेट भरती है , चाहे वह कोई भी हो। इसी महानता के कारण महात्मा गाँधी ने गाँव को भारत का तीर्थ कहा था। सच में भारतमाता ग्रामवासिनी है। चैंतुआ मीत है। पर अब प्यारे चैंतुआ गाँव में नहीं आते। न जाने कब लौट कर आएँगे ये चैंतुआ मीत। कब गाँव में सुनायी देंगी वह भोलीं सूरतों के मुँह से निकलने वाली विरहा -,चैती और रमटेरा भजनों की रस भरी तानैं…..
महुआ चुए आधी रात/ मधु रस छलके।

मैं तो आशावादी जो ठहरा । सो सोचता हूँ कभी न कभी लौटकर फिर जरूर आएँगे वही चैंतुआ मीत गाँव में।

© डा. रामशंकर भारती

 

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