@नई दिल्ली शब्द दूत ब्यूरो (26 मार्च, 2022)
राजधानी दिल्ली में तीनों नगर निगमों को मिलाकर एक किए जाने की प्रक्रिया शुरू हो गई है। संसद में यह प्रस्ताव पास होने के बाद निगमों के एकीकरण की प्रक्रिया में भी लगभग छह माह का समय लग सकता है और नई व्यवस्था में सीटों के परिसीमन में और अधिक समय लग सकता है। आम आदमी पार्टी का आरोप है कि भाजपा चुनाव से भाग रही है और अपनी हार टालने के लिए ही उसने निगमों के एकीकरण का काम शुरू किया है।
हालांकि, इसी बीच आशंका जताई जा रही है कि केंद्र सरकार दिल्ली को 1993 से पहले की स्थिति में ला सकती है। यानी दिल्ली का प्रशासन पूरी तरह निगमों के हवाले कर दिया जाए और दिल्ली विधानसभा को भंग कर दिया जाए। दिल्ली 1993 के पहले लगभग दस साल इसी स्थिति में नगर निगम के सहारे चलाया जाता था।
यदि ऐसा किया जाता है तो इससे भाजपा के दो लक्ष्य पूरे हो सकते हैं। सबसे बड़ी बात तो यह कि उसे आम आदमी पार्टी और अरविंद केजरीवाल के दिल्ली में ही होने से छुटकारा मिल जाएगा, जिसे वह अपनी पूरी ताकत के इस्तेमाल के बाद भी हरा नहीं पाई है, वहीं दिल्ली विधानसभा के खत्म होने से प्रशासनिक कामकाज में होने वाला विरोधाभास हमेशा-हमेशा के लिए खत्म हो जाएगा।
देश की सत्ता का केंद्र होने के नाते दिल्ली में काबिज होने से अरविंद केजरीवाल की आवाज सौ गुना ज्यादा सुनाई देती है। जबकि उन्हीं की तरह ममता बनर्जी ने पश्चिम बंगाल में, नवीन पटनायक ने उड़ीसा में, जगनमोहन रेड्डी ने आंध्र प्रदेश में और स्टालिन ने तमिलनाडु में बड़ी जीत दर्ज की है। लेकिन इसके बाद भी देश के केंद्र में न होने के कारण उनकी आवाज देश में वह असर पैदा नहीं कर पाती जो अरविंद केजरीवाल दिल्ली में रहकर कर देते हैं। यदि ऐसा होता है तो अरविंद केजरीवाल का देश के केंद्र तक पहुंचने का रास्ता कुछ ज्यादा लंबा हो सकता है।
दिल्ली विधानसभा को खत्म करने के पक्ष में दुनिया के अन्य देशों की व्यवस्थाओं के तर्क भी दिए जा रहे हैं जहां देश की राजधानियों में नगर निगमों के द्वारा प्रशासन चलाया जाता है। उसमें अन्य राज्यों की तरह अलग प्रशासनिक इकाई नहीं होती। लेकिन देश की सत्ता अलग-अलग राजनीतिक दलों द्वारा केंद्र में रहकर चलाई जाती रहती है। इससे एक ही जगह पर दो सरकारों के होने का कोई विरोधाभास नहीं होता जैसा कि दिल्ली में दिखाई पड़ता है।