देश में एक बार फिर से समान नागरिक संहिता पर बहस शुरू हो गई है। उत्तराखंड के सीएम पुष्कर सिंह धामी ने राज्य में समान नागरिक संहिता लागू करने का वादा किया है। लेकिन सवाल ये है कि क्या राज्य सरकार का ऐसा करने का अधिकार है।
@नई दिल्ली शब्द दूत ब्यूरो (24 मार्च, 2022)
उत्तराखंड में बीजेपी के पुष्कर सिंह धामी को दूसरी बार मुख्यमंत्री पद मिल गया है। मुख्यमंत्री के लिए जैसे ही उनका नाम तय हुआ, वैसे ही उन्होंने फिर से समान नागरिक संहिता का सुर छेड़ दिया। उन्होंने कहा कि सत्ता संभालते ही सारे वादों को पूरा किया जाएगा, जिसमें समान नागरिक संहिता का वादा भी शामिल है। धामी चुनाव प्रचार के दौरान भी कई बार समान नागरिक संहिता लागू करने की बात कर चुके हैं।
समान नागरिक संहिता एक ऐसा मुद्दा है, जो हमेशा से बीजेपी के एजेंडे में रहा है। वर्ष 1989 के लोकसभा चुनाव में पहली बार बीजेपी ने अपने घोषणापत्र में समान नागरिक संहिता का मुद्दा शामिल किया। साल 2019 के लोकसभा चुनाव के घोषणापत्र में भी बीजेपी ने समान नागरिक संहिता को शामिल किया था। बीजेपी का मानना है कि जब तक समान नागरिक संहिता को अपनाया नहीं जाता, तब तक लैंगिक समानता नहीं आ सकती।
समान नागरिक संहिता को लेकर सुप्रीम कोर्ट से लेकर दिल्ली हाईकोर्ट तक सरकार से सवाल कर चुकी है। साल 2019 में सुप्रीम कोर्ट ने नाराजगी जताते हुए कहा था कि समान नागरिक संहिता को लागू करने के लिए कोई कोशिश नहीं की गई। वहीं, पिछले साल जुलाई में दिल्ली हाईकोर्ट ने केंद्र से कहा था कि समान नागरिक संहिता जरूरी है।
आजादी के बाद से ही समान नागरिक संहिता पर बहस चल रही है। हालांकि, अब तक इसे लागू नहीं किया जा सका है। अब उत्तराखंड के मुख्यमंत्री पुष्कर सिंह धामी कह रहे हैं कि वो समान नागरिक संहिता को लागू करेंगे तो सवाल उठता है कि क्या वाकई राज्य सरकार ऐसा कर सकती है?
संविधान के जानकारों के अनुसार उत्तराखंड या कोई भी राज्य सरकार समान नागरिक संहिता को विधि सम्मत तरीके से लागू नहीं कर सकती। संविधान का अनुच्छेद 44 राज्य को समान नागरिक संहिता लागू करने की आजादी देता है, लेकिन अनुच्छेद 12 के अनुसार ‘राज्य’ में केंद्र और राज्य सरकारें शामिल हैं।
संविधान के विशेषज्ञ बताते हैं कि समान नागरिक संहिता को केवल संसद के जरिए ही लागू किया जा सकता है. अदालतों और संसद में केंद्र सरकार के जवाब से यही साफ होता है।
इसे ऐसे भी समझ सकते हैं कि बीजेपी ने भी लोकसभा के आम चुनावों के घोषणापत्र में समान नागरिक संहिता की लागू करने की बात की थी। जबकि उत्तराखंड विधानसभा चुनाव में भाजपा के घोषणापत्र में इसका जिक्र नहीं था।
विशेषज्ञ ये भी बताते हैं कि संविधान में कानून बनाने की शक्ति केंद्र और राज्य दोनों के पास है, लेकिन पर्सनल लॉ के मामले में राज्य सरकारों के हाथ बंधे हैं। इसलिए उत्तराखंड या अन्य राज्य सरकारें अपनी ओर से पर्सनल लॉ में कोई संशोधन या समान नागरिक संहिता लागू करने का यदि प्रयास करें तो कानून की वैधता को अदालत में चुनौती मिल सकती है। हालांकि, गोवा जैसे राज्य में पहले से ही समान नागरिक संहिता लागू है। वहां 1961 से ही पुर्तगाल सिविल कोड 1867 लागू है। इस पर विशेषज्ञ बताते हैं कि वहां समान नागरिक संहिता भारत का हिस्सा बनने से पहले से ही लागू है।
दरअसल, समान नागरिक संहिता यानी सभी धर्मों के लिए एक ही कानून। अभी होता ये है कि हर धर्म का अपना अलग कानून है और वो उसी हिसाब से चलता है। हिंदुओं के लिए अपना अलग कानून है, जिसमें शादी, तलाक और संपत्तियों से जुड़ी बातें हैं। मुस्लिमों का अलग पर्सनल लॉ है और ईसाइयों को अपना पर्सनल लॉ।
समान नागरिक संहिता को अगर लागू किया जाता है तो सभी धर्मों के लिए फिर एक ही कानून हो जाएगा। मतलब जो कानून हिंदुओं के लिए होगा, वही कानून मुस्लिमों और ईसाइयों पर भी लागू होगा। अभी हिंदू बिना तलाक के दूसरे शादी नहीं कर सकते, जबकि मुस्लिमों को तीन शादी करने की इजाजत है। समान नागरिक संहिता आने के बाद सभी पर एक ही कानून होगा, चाहे वो किसी भी धर्म, जाति या मजहब का ही क्यों न हो।
समान नागरिक संहिता का विरोध करने वालों का तर्क है कि अगर ये लागू होता है तो उससे उनके धार्मिक मान्यताओं को मानने का अधिकार छीन जाएगा। अगर कॉमन सिविल कोड को लागू किया भी जाता है तो इससे धार्मिक मान्यताओं के मानने के अधिकार पर कोई फर्क नहीं पड़ेगा। कॉमन सिविल कोड से हर धर्म के लोगों को एक समान कानून के दायरे में लाया जाएगा, जिसके तहत शादी, तलाक, प्रॉपर्टी और गोद लेने जैसे मामले शामिल होंगे।