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जन्मदिन पर स्मरण : प्रो प्रकाश दीक्षित हस्तक्षेप के पक्षधर

राकेश अचल, लेखक देश के जाने-माने पत्रकार और चिंतक हैं, कई राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय पत्र पत्रिकाओं में इनके आलेख प्रकाशित होते हैं।

ये पहला मौक़ा है जब हम सब प्रो प्रकाश दीक्षित का जन्मदिन उनके बिना मना रहे हैं. कोरोना ने उन्हें बीते साल हमसे छीन लिया. वे आज होते तो 86 साल के हो गए होते .आज के दिन मै हमेशा उनके पास एक पुष्पहार ,शाल,श्रीफल और मिठाई लेकर जाता था .वे अपना जन्मदिन मनाते नहीं थे लेकिन मुझे कभी उन्होंने ऐसा करने से रोका भी नहीं .मेरी हरकतों को देख वे मुस्करा उठते थे .

एक जमाने में जबरदस्त ठहाके लगाने वाले प्रो प्रकाश दीक्षित के बारे में लिखना आसान काम नहीं है. वे अपने जमाने के उन साहित्यकारों में से थे जो सचबयानी से कभी नहीं हिचके और इसके लिए उन्होंने हर कीमत अदा की .प्रो प्रकाश दीक्षित ने साहित्य की हर विधा में लिखा .कम लिखा लेकिन महत्वपूर्ण लिखा .उपन्यास लिखा,नाटक ,और कविता भी लिखी .आलोचना भी उनसे बची नहीं .लेकिन छपने पर उन्होंने कभी ज्यादा ध्यान नहीं दिया सो उनके संग्रह गिने-चुने ही हैं ,किन्तु वे सब हैं हिंदी साहित्य की धरोहर .

प्रो दीक्षित के साथ चार दशक की संगत में मैंने उनसे जो चीज सीखी वो ये कि बेमतलब तटस्थ नहीं रहना चाहिए. जहां जरूरी है वहां हस्तक्षेप करना ही चाहिए .मुझे लगता है कि यदि वे आज होते तो परम प्रगतिशील होते हुए भी वे यूक्रेन पर रूसी हमले के विरुद्ध कुछ न कुछ अवश्य लिखते .दीक्षित जी कहते थे कि आप यदि आसमान की और ऊँगली उठाकर घुमाएंगे तो मुमकिन है कि सौर मंडल पर इसका कुछ असर न हो किन्तु इसे एक हस्तक्षेप अवश्य माना जाएगा .एक हलचल अवश्य होगी .

साहित्य में प्रो प्रकाश दीक्षित के योगदान का मूल्यांकन जितना होना चाहिए था ,उतना नहीं हुआ .उन्होंने दो दर्जन से अधिक पुस्तकों का अंग्रेजी से हिंदी में अनुवाद किया .देश के तमाम बड़े प्रकाशकों के लिए अनुवाद करने वाले प्रो दीक्षित गजब के पढाका थे .उनके निजी संग्रह में अनेक दुर्लभ पुस्तकें थीं. मै जब भी अपने बेटे के पास अमेरिका जाता था उनके लिए अंग्रजी के एक-दो उपन्यास लेकर जरूर आता था .मजे की बात ये है कि वे हर विषय को अद्यतन पढ़ते थे ,चाहे वो उनकी रूचि का हो या न हो .उनकी स्मरण शक्ति गजब की थी .उनके पास संदर्भों की कोई कमी नहीं थी .

अपने आधी सदी से भी अधिक के साहित्यिक जीवन में प्रो प्रकाश दीक्षित ने कभी डाक्टर आफ फिलासफी की उपाधि हासिल नहीं की किन्तु न जाने कितने छात्रों को ये उपाधि बहुत आसानी से दिला दी .शोधार्थी उनके मार्गदर्शन के लिए कतार लगाए खड़े रहते थे .वे गाइड न होकर भी सबसे बड़े गाइड थे .शहर की साहित्यिक गतिविधियों में वे लगातार सक्रिय रहे लेकिन ‘होम सिकनेस’ और आत्मकेंद्रित रहने के स्वभाव ने उन्हें ग्वालियर तक ही सीमित कर दिया .वे किस्मत आजमाने मुंबई भी गए लेकिन मुंबई उन्हें रास नहीं आई .वे फिल्मों,नाटकों के लिए पटकथा,गीत ,संवाद सब लिख सकते थे लेकिन बात बनी नहीं .वे शायद पढ़ने और पढ़ने के लिए ही बने थे .

प्रो दीक्षित के छात्रों में अनेक बड़े नाम हैं ,वे उनके ऊपर गर्व भी करते थे किन्तु उन्होंने कभी भी गुरुदक्षिणा में अपने छात्रों से कुछ हासिल करने की कोशिश नहीं की .उनके जीवन काल में मेरी आधा दर्जन पुस्तकें आईं लेकिन मैंने कभी उनसे न अपनी पुस्तकों की भूमिका लिखवाई और न समीक्षा ,जबकि देश के अनेक लेखक नियमित रूप से उनसे ये काम करते रहते थे .मै उनके ज्ञान से आतंकित रहता था ,इसलिए उनके सामने न अपने को कवि के रूप में प्रकट करता था न साहित्यकार के रूप में .मै उनके सामने एक पत्रकार ही बना रहा हालाँकि वे मेरी हरेक पुस्तक पूरी लगन से पढ़ते थे,प्रतिक्रिया भी देते लेकिन मुस्करा कर .

. .पिछले साल जब मै जनवरी में अमरीका के लिए रवाना हो रहा था तब उन्होंने दीर्घ श्वांस लेते हुए कहा था -‘ राकेश जल्द लौट आना ,पता नहीं अब क्यों बहुत डर लगने लगा है ‘.वे अनहोनी से आशंकित रहने लगे थे ,हालाँकि उन्हें कोई रोग नहीं था .मैंने उनके लिए हमेशा की तरह उपहार के रूप में अंग्रजी का एक उपन्यास खरीद लिया था ,लेकिन वे उसे पढ़ नहीं पाए.मेरे स्वदेश लौटने से पहले ही कोरोना ने उन्हें हमसे छीन लिया.मात्र चौबीस घंटे में ही वे स्मृतिशेष हो गए .मै उन्हें समर्पित अपना पहला उपन्यास ‘ गद्दार’ भेंट नहीं कर सका .वे हमेशा हमारी स्मृतियों में जीवित रहेंगे .
@ राकेश अचल

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