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चाउमिन के ठेले बनाम राजनीति के रथ, सियासत के बदलते प्रतीकों पर वरिष्ठ पत्रकार राकेश अचल की पैनी कलम

राकेश अचल, लेखक देश के जाने-माने पत्रकार और चिंतक हैं, कई राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय पत्र पत्रिकाओं में इनके आलेख प्रकाशित होते हैं।

देश की राजनीति का रथों से सीधा और पुराना रिश्ता है। पहले राजनीति हाथी-घोड़ों और बैलगाड़ी तक सीमित थी लेकिन देश में कमल की कृषि शुरू होने के बाद से रथों का इस्तेमाल भी शुरू हो गया। राजनीति में रथारूढ़ होना पुरुषार्थ का प्रतीक है, ऐसे में कोई रथ जैसी महत्वपूर्ण चीज को चाउमिन का ठेला कह दे तो तकलीफ होना स्वाभाविक है।

भारत पहले कृषि प्रधान देश था, इसलिए तब राजनीति में लोग गाय-बछड़ा, हंसिया-हथौड़ा ,अनाज उड़ाता किसान,हल आदि दिखाकर वोट मांगने जाते थे। बिजली कम थी इसलिए दीपक भी लोगों की पसंद में शामिल था।समय के साथ सियासत की शिनाख्त के चिन्ह बदले तो नेताओं की सवारी भी बदली। बैलगाड़ी से वे सीधे रथों और मंहगी वातानुकूलित वाहनों पर आ गए। जनता यानि वोटर जहां था वहीं खड़ा रह गया। राजनीति आगे बढती है तो वोटर पिछड़ता ही है।

अब सियासी दल हाथ के पंजे,कमल के फूल और झाड़ू से पहचाने जाते हैं। क्योंकि देश कृषि प्रधान नहीं रहा। कीचड़ और कमल,हाथ के पंजे और झाड़ू प्रधान हो गया।लोग साइकल पर सवार होकर हाथी और रथारूढ़ लोगों से मुकाबला करने लगे।साइकल सवार अखिलेश यादव ने भाजपा के रथों को चाउमिन का ढेला कहकर रथों के साथ ही रथारूढ़ नेताओं का भी अपमान कर दिया।इसे भला कैसे बर्दाश्त किया जा सकता है ?

देश के पहले और राष्ट्रीय रथयात्री माननीय लालकृष्ण आडवाणी जी इस मामले में बेहद चुप है।वे अब बोलना भूल गए हैं या उनकी बोलती बंद कर दी गई है ये जांच का विषय है। बहरहाल भाजपा ने साइकिल सवार अखिलेश यादव की टिप्पणी को रथों का नहीं बल्कि चाउमिन ठेले वालों का अपमान बताया है। सचमुच ये चाउमिन ठेले वालों का अपमान है। रथों का तो मान-अपमान से कोई लेना-देना है नहीं।रथ और रथारूढ़ नेता तो काठ-कबाड़ के बने होते हैं। उनकेे ऊपर किसी चीज का कोई असर नहीं होता। लेकिन आप उन्हें बेशर्म कहें ये हमें मंजूर नहीं।

बहरहाल भाजपा को सोचना चाहिए कि साइकिल पर बैठे आदमी को बड़े से बड़ा रथ भी ठेला ही तो लगेगा। अखिलेश यादव झूठ नहीं बोल रहे। उन्हें चाउमिन पसंद हैं इसलिए उन्होंने रथ को चाउमिन का ठेला कह दिया। राजनीति में रथ पर बैठ कर लोग 02 से बढ़कर 300 पार कर गये। दूसरी किसी सवारी ने इतना माइलेज नहीं दिया। यहां तक कि हाथी भी फ्लॉप साबित हुआ।

पहले रथों में घोड़े जोते जाते थे,अब रथ पेट्रोल-डीजल से चलते हैं। जिनके पास रथ हैं उनके पास पेट्रोल पंप भी हैं इसलिए कोई समस्या नहीं है रथों को इस्तेमाल करने में। रथों से चिढ़ने वाले लोग कुंठा के शिकार हैं। जबकि उन्हें समझना चाहिए कि साइकिल ज्यादा ईको फ्रेंडली है,रथ नहीं।रथ केवल राजपथों पर चलते हैं,साइकल और हाथी या झाड़ू तो कहीं भी चल सकती है। बस शर्त एक ही है कि साइकिल के टायर-ट्यूब नये हों,हाथी लीद न करता हो और झाड़ू कसकर बंधी हो।

राजनीति करने वालों को याद रखना चाहिए कि अश्वमेध के घोड़े और रथ ही रोके जाते हैं,हाथी,हाथ या साइकिल नहीं। विश्व विजेता बनने की कामना केवल रथारूढ नेता ही करते हैं। रथ पर चढ़े नेताओं की पहुंच चाउमिन के ठेले वालों तक हो ही नहीं सकती। इसलिए हे तात ! चाउमिन ठेले जैसे रथों को रोकने के लिए साइकिल पर सवार होकर राजनीति करो। विजय अवश्य प्राप्त होगी।रथ अपनी ही फैलाई कीच में फंसकर रह जाएंगे। कोई किसान धक्का देने नहीं आएगा
@ राकेश अचल

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