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प्रसंगवश: अवसरवाद की एक और दास्तां

लेखक – इन्द्रेश मैखुरी, चिंतक और विचारक

@इंद्रेश मैखुरी

सुबह भाजपा के मीडिया विभाग के प्रमुख और राज्य सभा सांसद अनिल बलूनी ने ट्वीट किया कि दोपहर एक बजे, एक प्रमुख हस्ती भाजपा का दामन थामेगी। तभी से कयास लगाए जाने लगे थे कि यह हस्ती, कोई कांग्रेसी ही होगा। उस कयासबाजी में भी पहला नाम-जितिन प्रसाद का ही लिया जा रहा था।

जितिन प्रसाद शाहजहांपुर के पूर्व दिग्गज कांग्रेसी नेता दिवंगत जीतेंद्र प्रसाद के बेटे हैं। जितिन खुद भी शाहजहांपुर से सांसद और यूपीए सरकार में केंद्रीय मंत्री रहे हैं।

उनके पाला बदल पर कांग्रेस और भाजपा दोनों के भीतर, जो अवसरवाद की राजनीति है, उसकी कलई एक बार फिर खुल गयी है। जिस कांग्रेस को छोड़ कर जितिन प्रसाद ने पाला बदला, उस कांग्रेस में एक समय वे राहुल गांधी की युवा उस ब्रिगेड का हिस्सा थे, जिन्हें, पुरानी पीढ़ी के कांग्रेसियों से मुक्त करके, कांग्रेस को आगे बढ़ाने के खेवनहार के तौर पर देखा जाता था।

उस पीढ़ी के जितने युवा चेहरे थे, वे कांग्रेस को तो नहीं बदल पाये पर धीरे-धीरे सत्तालोलुपता के चलते पाला जरूर बदल रहे हैं। उनसे पहले ज्योतिरादित्य सिंधिया भाजपा का दामन थाम चुके हैं। सचिन पायलट भी भाजपा की झोली में गिरते-गिरते बचे। वसुंधरा राजे सिंधिया ने थोड़ी रुचि दिखाई होती तो मुमकिन था कि पायलट आज भाजपा में जितिन प्रसाद की अगुवानी कर रहे होते।

राहुल गांधी पर यह सीधा प्रश्नचिन्ह तो है ही कि उनके युवा ब्रिगेड के ये चेहरे सत्ता से बाहर होते ही दल बदलू क्यों हो जा रहे हैं ?

जितिन प्रसाद को शामिल करके भाजपा ने भी दिखा दिया कि कांग्रेस को वह भले ही कितना बुरा-भला कहे,लेकिन कांग्रेस से दल-बदल कर उसके पाले में आने को इच्छुक नेता, भाजपा को बहुत पसंद हैं। बाकी समय वह वंशवाद का कितना ही राग अलापे, लेकिन ज्योतिरादित्य सिंधिया, जितिन प्रसाद जैसे नेताओं से गलबहियां करने में उसे कोई गुरेज नहीं है, जिनका सारा राजनीतिक अस्तित्व ही उस परिवारवाद की राजनीति की देन है।

जितिन प्रसाद की उलटबांसी भी गजब है। पिछले वर्ष जब उत्तर प्रदेश में कुख्यात विवेक दुबे का एंकाउंटर हुआ तो जितिन प्रसाद ने इसे ब्राह्मण हत्या करार दिया था। एक दुर्दांत अपराधी से ज्यादा उन्हें, उसकी जाति से सरोकार था। उस समय उत्तर प्रदेश में उन्होंने ब्राह्मण हत्या के विरुद्ध अभियान चलाया। वे बाकायदा एक ब्राह्मण चेतना संवाद चला रहे थे।

आज वे उसी पार्टी में,उसी मुख्यमंत्री के अधीन शामिल हो गए हैं, जिसके विरुद्ध अपनी जाति के स्वयंभू झंडाबरदार वे बन रहे थे। पहले जितिन प्रसाद सेक्युलर पार्टी में ब्राह्मणों के ठेकेदार थे। यह अजब किस्म का सेक्युलरिज़्म था, जिसमें जातीय गोलबंदी की छूट थी। अब वे हिंदुवादी पार्टी में ब्राह्मण छत्रप होंगे। मीडिया में उन्हें इसी रूप में पेश किया जा रहा है। हिंदुवादी पार्टी में अंततः जातीय संघर्ष तो होगा ही !

यही 21वीं सदी के भारत की राजनीति की तस्वीर है, जहां राजनीति और राजनीतिक उपयोगिता जातीय समीकरणों के आधार पर तय हो रही है। जितिन प्रसाद के उदाहरण से साफ है कि जाति का कार्ड खेलने वालों का यह सारा खेल, जाति-धर्म की पिछड़ी चेतना को उभार कर सत्ता की मलाई हड़पने के लिए है।

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