वेद भदोला
आज तक समझ नहीं पाया कि आखिर क्या और कैसे काम करता है पलायन आयोग। अगर, पलायन की आंकड़ेबाजी ही करनी है तो वो प्रत्येक दस साल में जनगणना वाले कर ही देते हैं। फिर भला आयोग का क्या औचित्य। यथा नाम तथा की तर्ज पर चलते हुए पलायन आयोग निरंतर हो रहे पलायन पर मूकदर्शक ही तो है।
खैर, मैं एक बार फिर दोहरा रहा हूं कि अगर उत्तराखंड में शिक्षा और स्वास्थ्य सेवाओं को बेहतर बना दिया जाए तो काफी हद तक इस समस्या का निदान हो सकता है। रोजगार के बाद शिक्षा के नाम पर पलायन अब भी हो रहा है। ये अलग बात है कि उत्तराखंड में शिक्षा के बेहतर विकल्प के बाद भी युवा नौकरी की तलाश में शहरों का रुख करेगा ही। क्योंकि, उत्तराखंड में रोज़गार की उपलब्धि लगभग शून्य है। सरकार भी ये मान बैठी है कि वहां रोजगार सृजन हो ही नहीं सकता।
हाल ही में सम्पन्न हुए इन्वेस्टर्स समिट में राज्य सरकार ने कई हज़ार करोड़ रुपयों के एमओयू की बात कही थी। लेकिन, धरातल पर स्थिति क्या है। एक लंबा सन्नाटा। ज्यादातर एमओयू उत्तराखंड के मैदानी इलाकों के लिए हैं। पहाड़ के लिए इक्के-दुक्के ही एमओयू हुए हैं। लिहाजा, पहाड़ में रोजगार का भविष्य अंधकारमय ही दिखता है। इधर, रिवर्स माइग्रेशन के नाम पर कुछ उत्साही युवकों द्वारा रोजगार सृजन के प्रयास जरूर किये जा रहे हैं। लेकिन, सरकार इस दिशा में भी आंखे मूंदी बैठी है।
एक दुर्घटना पीड़ित के संबंधित का वीडियो देख मन खिन्न हो गया, जिसमें वो कहता हुआ दिखाया गया कि श्रीनगर मेडिकल कॉलेज में एक्सरे और अल्ट्रासाउंड जैसी सुविधाएं भी उपलब्ध नहीं हैं। अब आप अंदाजा लगाइए कि मेडिकल कॉलेज का ये हाल है तो उत्तराखंड के स्वास्थ्य केंद्रों का क्या आलम होगा। ऐसे में आयुष्मान भारत जैसी स्वास्थ्य योजना का क्या लाभ जब बीमार को इलाज के लिए शहरों की ओर दौड़ना पड़े।
पहाड़ पर अब भी पांव जमाये खड़े उन लोगों को सलाम जिहोनें विषम परिस्थितियों के बावजूद भी नीचे का रुख नहीं किया। एक सवाल ये भी कि क्या पलायन आयोग एक सफेद हाथी मात्र है।